________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 299 ज्ञानसम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् / पूर्वं हि दर्शनोत्पत्ते: साकारग्रहणस्य मिथ्याज्ञानव्यपदेशो मिथ्यात्वसहचरितत्वेन यथा, तथा दर्शनमोहोपशमादेर्दर्शनोत्पत्तौ सम्यग्ज्ञानव्यपदेश इति / नन्वेवं सम्यग्ज्ञानस्य दर्शनसम्यक्त्वहेतुत्वादभ्योऽस्तु मिथ्याज्ञानसहचरितस्यार्थ श्रद्धानस्य मिथ्यादर्शनव्यपदेशात् / मत्यादिज्ञानावरणक्षयोपशमान्मत्यादिज्ञानोत्पत्तौ तस्य सम्यग्दर्शनव्यपदेशात् / न हि दर्शनं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशनिमित्तं न पुनर्ज्ञानं दर्शनस्य सहचारित्वाविशेषादिति चेत् न। ज्ञानविशेषापेक्षया दर्शनस्य ज्ञानसम्यक्त्वव्यपदेशहेतुत्वसिद्धेः। सकलश्रुतज्ञानं हि केवलमन:पर्ययज्ञानवत् प्रागुद्भूतसम्यग्दर्शनस्यैवाविर्भवति न मत्यादिज्ञानसामान्यवद्दर्शनसहचारीति सिद्ध ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वं दर्शनस्य ज्ञानादभ्यर्हसाधनं / ततो दर्शनस्य पूर्वं प्रयोगः। कश्चिदाह- ज्ञानमभ्यर्हितं तस्य प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तौ भवांतराभावात्, न तु दर्शनं। तस्य क्षायिकस्यापि नियमेन भवांतराभावहेतुत्वाभावादिति। सोऽपि चारित्रस्याभ्यर्हितत्वं ज्ञान में सम्यग् व्यपदेश का हेतु होने से सम्यग्दर्शन पूजनीय कहलाता है। क्योंकि जैसे सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने के पूर्व मिथ्यादर्शन का सहचर होने से ज्ञान के 'मिथ्याज्ञान' ऐसा व्यपदेश होता है- उसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम आदि से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होने पर ज्ञान के 'सम्यग्ज्ञान' यह व्यपदेश (संज्ञा) हो जाता है। प्रश्न- हम ऐसा भी कह सकते हैं कि दर्शन के सम्यक्त्व का हेतुत्व होने से ज्ञान पूजनीय है, क्योंकि मिथ्याज्ञान के साथ होने से तत्त्वार्थश्रद्धान की 'मिथ्यादर्शन' यह संज्ञा होती है- और मति आदि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मति आदि ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर मिथ्यादर्शन के 'सम्यग्दर्शन' यह व्यपदेश (संज्ञा) हो जाता है। अथवा न तो दर्शन, ज्ञान के सम्यग् व्यपदेश का निमित्त है और न ज्ञान, दर्शन के सम्यग् व्यपदेश का निमित्त है क्योंकि दोनों में ही सहचारित्व की अविशेषता है? उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है- क्योंकि यहाँ ज्ञान विशेष की अपेक्षा से दर्शन के ज्ञान के सम्यक्त्व देश हेतुत्व सिद्ध है अर्थात् विशेष ज्ञान की अपेक्षा ज्ञान में समीचीनता लाने वाला सम्यग्दर्शन है अत: सम्यग्दर्शन ज्ञान की समीचीनता का कारण है- क्योंकि जैसे मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान पूर्व में उत्पन्न सम्यग्दर्शन वाले (सम्यग्दृष्टि) के ही होते हैं, उसी प्रकार सकल श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टि वाले के ही होता है अतः सामान्य मतिज्ञान आदि के साथ दर्शन के सहचारित्व सिद्ध नहीं है, विशेष ज्ञान के साथ सहचारित्व सिद्ध है। ... इस विशेष ज्ञान की अपेक्षा दर्शन के 'ज्ञान के सम्यक्त्व का हेतुत्व सिद्ध होने से' ज्ञान से दर्शन के पूज्यत्व सिद्ध ही है। इसलिये 'ज्ञान' से पूर्व 'दर्शन' का प्रयोग किया गया है। कोई प्रतिवादी प्रश्न करता है कि- ज्ञान ही पूजनीय है क्योंकि ज्ञान के प्रकर्ष (उत्कृष्ट) ता प्राप्त होने पर भवान्तर (संसारभ्रमण) का अभाव हो जाता है अर्थात् वह आत्मा उसी भव से मोक्ष चला जाता है। सम्यग्दर्शन पूजनीय नहीं है- क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व हो जाने पर भी नियम से भवान्तर के अभाव के हेतुत्व का अभाव है- अर्थात् केवलज्ञानी के समान क्षायिक सम्यग्दृष्टि उसी भव से मोक्ष में जाता है- ऐसा नियम नहीं