________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२८८ प्रत्यक्षत्वप्रसंगादनुमेयत्वविरोधः। प्रमाणबाधितं च शक्तेः प्रत्यक्षत्वं / तथाहि-ज्ञानशक्तिर्न प्रत्यक्षास्मदादेः शक्तित्वात् पावकादेर्दहनादिशक्तिवत् / न साध्यविकलमुदाहरणं पावकादिदहनादिशक्तेः प्रत्यक्षत्वे कस्यचित्तत्र संशयानुपपत्तेः / यदि पुनरप्रत्यक्षा ज्ञानशक्तिस्तदा तस्याः करणज्ञानत्वे प्रभाकरमतसिद्धिः, तत्र करणज्ञानस्य परोक्षत्वव्यवस्थिते: फलज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वोपगमात्। ततः प्रत्यक्षं करणज्ञानमिच्छतां न तच्छक्तिरूपमेषितव्यं स्याद्वादिभिरिति चेत् / तदनुपपन्न / एकान्ततोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वस्य करणज्ञानेऽन्यत्र वा वस्तुनि प्रतीतिविरुद्धत्वेनानभ्युपगमात् / द्रव्यार्थतो हि ज्ञानमस्मदादेः प्रत्यक्षं, प्रतिक्षणपरिणामशक्त्यादिपर्यायार्थतस्तु न प्रत्यक्षं। तत्र स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं स्वसंविदितं फलं प्रमाणाभिन्नं वदतां करणज्ञानं प्रमाणं कथमप्रत्यक्षं नाम? न च येनैव रूपेण तत्प्रमाणं तेनैव फलं, येन विरोधः। किं तर्हि? साधकतमत्वेन प्रमाणं शंका- यदि ज्ञानशक्ति प्रत्यक्ष है तो सकल पदार्थों की शक्ति के प्रत्यक्षत्व का प्रसंग होने से अनुमेयत्व (अनुमान के द्वारा जानने योग्य पदार्थ) का विरोध होगा। अर्थात् सब पदार्थों के प्रत्यक्ष हो जाने पर अनुमेय पदार्थ नहीं रहेगा अतः शक्ति का प्रत्यक्षत्व प्रमाणबाधित है। इसमें अनुमान का प्रयोग करते हैं- ज्ञान शक्ति हम लोगों के प्रत्यक्ष नहीं है शक्ति होने से, अग्नि आदि की दहन शक्ति के समान। यह दहन शक्ति का उदाहरण साध्यविकल भी नहीं है, क्योंकि पावकादि की दहन शक्ति के प्रत्यक्ष हो जाने पर उसमें किसी का संशय नहीं रहेगा (अतः अनुमान का विषय नहीं रहेगा।) यदि पुनः ज्ञान शक्ति अप्रत्यक्ष है तो उस ज्ञान शक्ति के करणत्व मानने पर प्रभाकर मत की सिद्धि होती है। क्योंकि प्रभाकर मत में ही ज्ञप्ति के करणरूप प्रमाणज्ञान को परोक्ष और फलज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। अतः करणज्ञान को प्रत्यक्ष मानने वाले जैनों को करणज्ञान को शक्तिरूप इष्ट नहीं करना चाहिए। उत्तर- इस प्रकार कहना समीचीन नहीं है- क्योंकि हमारे एकान्त रूप से सर्वथा प्रत्यक्ष हो जाना करणज्ञान में वा अन्य घट पट आदि वस्तुओं में प्रतीतिविरुद्ध होने से स्वीकार नहीं किया गया है अतः हम लोगों के द्रव्य की अपेक्षा ज्ञान प्रत्यक्ष है और प्रतिक्षण परिणमन करने वाली शक्ति आदि पर्याय की अपेक्षा प्रत्यक्ष नहीं है- अर्थात् द्रव्य से तो ज्ञान प्रत्यक्ष है, पर्याय से प्रत्यक्ष नहीं है। उसमें स्वार्थव्यवसायात्मक (स्व पर का निर्णय करने वाले) को ज्ञान और प्रमाण से अभिन्न स्वसंविदित को फल कहने वालों के करण रूप प्रमाणात्मक ज्ञान अप्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। हम ऐसा भी नहीं कहते हैं कि जिस रूप से प्रमाण है, उसी रूप से फल है; जिससे प्रमाण और फल में एकता होने से विरोध आ सकता है। शंका- तो आप कैसा मानते हैं? 1. जिस उदाहरण की साध्य के साथ व्याप्ति न हो, वह साध्यविकल उदाहरण है।