________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 295 संवेद्यते संवेदनं नापि परतः किन्तु संवेद्यत एवेति तस्य सत्त्ववचने, न क्रमान्नित्योऽर्थः कार्याणि करोति नाप्यक्रमात् किं तर्हि? करोत्येवेति ब्रुवाणः कथं प्रतिक्षिप्यते? नैकदेशेन स्वावयवेष्ववयवी वर्तते नापि सर्वात्मना किंतु वर्तते एवेति च। नैकदेशेन परमाणुः परमाण्वंतरैः संयुज्यते नापि सर्वात्मना किं तु संयुज्यत एवेत्यपि ब्रुवन्न प्रतिक्षेपार्होऽनेनापादितः। . ___ यदि पुन: क्रमाक्रमव्यतिरिक्तप्रकारासंभवात्ततः कार्यकारणादेरयोगादेवं ब्रुवाणस्य प्रतिक्षेपः क्रियते तदा स्वपरव्यतिरिक्तप्रकाराभावान तत: संवेदनं संवेद्यत एवेत्यप्रतिक्षेपार्हः सिद्ध्येत् / संवेदनस्य प्रतिक्षेपे सकलशून्यता सर्वस्यानिष्टा स्यादिति चेत्, समानमन्यत्रापि / ततः स्वयं संवेद्यस्य स्वतः ही सत्त्व का संवेदन नहीं होता है, और परतः भी नहीं होता है परन्तु संवेदन होता है, ऐसा कहकर पदार्थ के सत्त्व का सिद्ध करने वाले "नित्य पदार्थों में क्रम से भी कार्य (क्रिया) नहीं होता है और अक्रम से भी नहीं होता है परन्तु कार्य होते हैं" ऐसा कहने वालों का निराकरण कैसे कर सकते “अपने अवयवों में अवयवी एकदेश से भी नहीं रहता है और सर्वदेश से भी नहीं रहता है, तथा परमाणु एकदेश से भी परमाणु अन्तर के (दूसरे परमाण के साथ सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होता है और सर्वदेश के द्वारा भी परमाणु अन्तर के सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होता है परन्तु दूसरे परमाणु के साथ सम्बन्ध को प्राप्त अवश्य होता है- इसी प्रकार स्व और पर से संवेदन न होते हुए भी वस्तु है" इस प्रकार कहने वाला भी हमारी बात का खण्डन नहीं कर सकता क्योंकि ऊपर कथित हेतु से इसका खण्डन कर दिया गया है। यदि पुनः क्रम और अक्रम से अतिरिक्त कार्यों के कर देने या पर्यायों के प्रकट होने का दूसरा कोई उपाय नही सम्भवता है और नित्य पक्ष में पदार्थ से कार्य-कारण का अयोग है (अर्थात् नित्य पदार्थ के कार्य-कारण भाव नहीं होता है).ऐसा कहकर उसका (सांख्य का) खण्डन निराकरण किया जाता है तो संवेदन के जानने का स्व-पर से व्यतिरिक्त (भिन्न) प्रकारान्तर का अभाव होने से. संवेदन भी संवेद्य नहीं (संवेदन का संवेदन नहीं) होता, ऐसी दशा में आपका (बौद्धों का) संवेदन भी खण्डन करने योग्य नहीं है, ऐसा सिद्ध नहीं होता है। .यदि (बौद्ध) कहें कि संवेदन की सत्ता का लोप कर देने पर तो सब के अनिष्ट सकलशून्यता (सर्वपदार्थों से रहितता) हो जायेगी तो स्वाभिप्रेत अर्थ को भी अवास्तव मान लेने पर सब को अनिष्ट सकलशून्यता हो जायेगी- क्योंकि संवेदन में और स्वाभिप्रेतार्थ में समानता ही है। इसलिए सर्वथा विशेषता (संवेदन और अभिप्रेतार्थ में विशेषता) का अभाव होने से स्वयं संवेद्य और दृष्टिगोचर होने वाले रूपादि के परमार्थ सत्त्व स्वीकार करने वालों को अव्यभिचारी (वास्तव रूप से दृष्टिगोचर होने वाले परमार्थ सत्त्व) अभिप्रेतार्थ का भी खण्डन नहीं करना चाहिए। तथा सुनय विषय वाले स्वाभिप्रेतार्थ के परमार्थ सत्त्व में, उसकी प्राप्ति और अप्राप्ति के वास्तव रूप सिद्ध हो जाने पर तद्धेतुक (स्वाभिप्रेतार्थ