________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 289 साध्यत्वेन फलं। साधकतमत्वं तु परिच्छेदनशक्तिरिति प्रत्यक्षफलज्ञानात्मकत्वात् प्रत्यक्षं शक्तिरूपेण परोक्षं / ततः स्यात् प्रत्यक्षं स्यादप्रत्यक्षमित्यनेकांतसिद्धिः। यदा तु प्रमाणाद्भिन्नं फलं हानोपादानोपेक्षाज्ञानलक्षणं तदा स्वार्थव्यवसायात्मकं करणसाधनं ज्ञानं प्रत्यक्षं सिद्धमेवेति न परमतप्रवेशस्तच्छक्तेरपि सूक्ष्मायाः परोक्षत्वात् / तदेतेन सर्व कर्नादिकारकत्वेन परिणतं वस्तु कस्यचित् प्रत्यक्षं परोक्षं च कर्नादिशक्तिरूपतयोक्तं प्रत्येयं / ततो ज्ञानशक्तिरपि च करणत्वेन निर्दिष्टा न स्वागमेन यक्त्या च विरुद्धेति सक्तं। आत्मा चार्थग्रहाकारपरिणामः स्वयं प्रभुः। ज्ञानमित्यभिसंधान-कर्तृसाधनता मता / / 23 / / तस्योदासीनरूपत्वविवक्षायां निरुच्यते। भावसाधनता ज्ञानशब्दादीनामबाधिता // 24 // ननु च जानातीति ज्ञानमात्मेति विवक्षायां करणमन्यद्वाच्यं, नि:करणस्य कर्तृत्वायोगादिति उत्तर- जैन लोग प्रमाण को साधकतमत्व' से और फल को साध्यत्व रूप से मानते हैं। अर्थात् प्रमाण साधक है और फल साध्य है तथा परिच्छेदन (ज्ञानस्वरूप) शक्ति साधकतमत्व है वह साधकतम प्रत्यक्षफल ज्ञानात्मक होने से प्रत्यक्ष है और शक्ति रूप से परोक्ष है। अत: ज्ञानशक्ति कथंचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् अप्रत्यक्ष है; इस प्रकार अनेकान्त की सिद्धि होती है। जब प्रमाण से हानोपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप भिन्न फल स्वीकार करते हैं तब अपने और अर्थ को निश्चय करने स्वरूप करण साधन ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रत्यक्षसिद्ध ही है अतः सूक्ष्म शक्ति के परोक्ष होने से परमत (अन्यमत, प्रभाकर के मत) का प्रवेश नहीं होता। इसलिये इस कादि (कर्ता आदि) कारकत्व से परिणत सर्व वस्तु किसी के प्रत्यक्ष है और कर्ता आदि शक्तिरूप से कथित सर्व वस्तु किसी के परोक्ष है, ऐसा समझना चाहिए। अत: करणत्व से निर्दिष्ट ज्ञान शक्ति आगम से और युक्ति से भी कर्ता से अभिन्न विरुद्ध नहीं है। ऐसा कहना युक्त ही है (श्रेष्ठ ही है)। अर्थग्रहाकार (ज्ञानाकार) से परिणत स्वयं प्रभु आत्मा ही है (ज्ञान पर्याय से परिणत आत्मा ही जानता है) आत्मा ही ज्ञान है, इस प्रकार कर्तृसाधनता मानी गई है। ज्ञान के उदासीन रूप की विवक्षा करने पर भावसाधन (जानना मात्र ज्ञान है) भी है। अतः ज्ञानादि शब्दों के कर्तृसाधनता, करण साधनता और भाव साधनता अबाधित है॥२३-२४ / इसी प्रकार दर्शन और चारित्र में करण, कर्ता और भाव साधनः जानना चाहिए। शंका- जानता है वह ज्ञान आत्मा ही है, ऐसी विवक्षा करने पर करण तो अन्य ही होना चाहिये क्योंकि करण (साधन) के बिना कर्ता नहीं हो सकता अर्थात् नि:करण के कर्तृता भी नहीं बन सकती। 1. जिसके द्वारा कार्य सिद्ध किया जाता है वह साधकतम है। 2. जो सिद्ध होता है वह साध्य है।