________________ ___ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 206 विवक्षितात्मा आत्मांतरस्य यदि प्रमेयस्तदास्य स्वात्मा किमप्रमेयः प्रमेयो वा? अप्रमेयश्शेत् तात्मांतरस्य प्रमेय इति पर्यनुयोगस्यापरिनिष्ठानादनवस्था केन बाध्यते? प्रमेयश्चेत् स एव प्रमाता स एव प्रमेय इत्यायातमेकस्यानेकत्वं विरुद्धमपि परमतसाधनं, तद्वत् स एव प्रमाणं स्यात् साधकतमत्वोपपत्तेरिति पूर्वोक्तमरिवलं दूषणमशक्यनिवारणम्। स्वसंवेद्ये नरे नायं दोषोऽनेकांतवादिनाम् / नानाशक्त्यात्मनस्तस्य कर्तृत्वाद्यविरोधतः / / 212 // परिच्छेदकशक्त्या हि प्रमातात्मा प्रतीयते। प्रमेयश्च परिच्छेद्यशक्त्याकांक्षाक्षयात्स्थितिः॥२१३॥ ननु स्वसंवेद्येऽप्यात्मनि प्रमातृत्वशक्तिः प्रमेयत्वशक्तिम स्वयं परिच्छेदकशक्त्यान्यया यदि विवक्षित आत्मा आत्मान्तर (दूसरी आत्मा) के द्वारा प्रमेय है (जानने योग्य है) तो उस अन्य ज्ञाता की स्व आत्मा अप्रमेय है कि प्रमेय है? यदि स्वयं अप्रमेय है तो वह दूसरी आत्मा के द्वारा प्रमेय (जानने योग्य) होगी। वह आत्मा दूसरे के द्वारा जानी जायेगी। इस प्रकार प्रश्न की समाप्ति न होने से अनवस्था दोष किसके द्वारा बाधित हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता है। यदि आत्मा स्वयं के द्वारा जानने योग्य होने से स्वयं प्रमेय भी है, ऐसा मानते हो तो- वह आत्मा स्वयं प्रमाता भी है- प्रमेय भी है, यह सिद्ध होता है। इसलिए एक के भी अनेकत्व विरुद्ध होते हुए भी प्रतीति के बल से सिद्ध होता है। और यही परमत (जैनमत) की सिद्धि है। तथा आत्मा प्रमाता और प्रमेय के समान स्वकीय प्रमिति का साधकतम कारण होने से प्रमाण भी है। अतः स्याद्वाद सिद्धान्त में वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। एकान्तवादी नैयायिक आदि के सिद्धान्त में अनवस्था आदि दोषों का निवारण करना शक्य नहीं है। आत्मा को स्वसंवेद्य मान लेने पर अनेकान्तवादियों के दर्शन में अनवस्था आदि दोष नहीं आते हैं। क्योंकि आत्मा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान रूप अनेक तादात्म्यक शक्तियों का पिण्ड है। अत: उस आत्मा के कर्तृत्वादि (कर्तापना, ज्ञातापना, ज्ञेयपना, प्रमाणपना) के मानने में विरोध नहीं है। क्योंकि आत्मा अपनी परिच्छेदक (ज्ञातृत्व) शक्ति के द्वारा स्वतंत्र रूप से पदार्थों को जानता है, अतः प्रमाता प्रतीत होता है। वह परिच्छेद्य शक्ति के द्वारा, स्व और पर के द्वारा जानने योग्य भी है अतः प्रमेय भी है। (अपने सम्यग्ज्ञान परिणामों के द्वारा स्व-पर पदार्थों को जानता है, अतः प्रमाण भी है।) स्याद्वाद मत में दोष-परिहार स्याद्वाद सिद्धान्त में इस कथन से आकांक्षाओं का क्षय हो जाने से अनवस्था दोष भी नहीं आता है। अर्थात् अभ्यासदशा में ज्ञान स्वयं प्रमाण हो जाता है- अत: जानने की आकांक्षा शांत हो जाती है।।२१२२१३॥ शंका- स्वसंवेद्य (अपने द्वारा जानने योग्य) भी आत्मा में स्वयं प्रमातृ शक्ति और प्रमेय शक्ति हैं। ये दोनों शक्तियाँ किसी दूसरी परिच्छेदक शक्ति के द्वारा परिच्छेद्य हैं। वह परिच्छेदकत्व और परिच्छेद्यत्व