________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 243 कर्तृत्वप्रसक्तिरिति चेत्, मुक्तः किमकर्तेष्टः? विषयसुखादेरकर्तेवेति चेत्, कुतः स तथा? तत्कारणकर्मकर्तृत्वाभावादिति चेत्, तर्हि संसारी विषयसुखादिकारणकर्मविशेषस्य कर्तृत्वाद्विषयसुखादेः कर्ता स एव चानुभविता किं न भवेत्? संसार्यवस्थायामात्मा विषयसुखादितत्कारणकर्मणां न कर्ता चेतनत्वान्मुक्तावस्थावदित्येतदपि न सुंदरं, स्वेष्टविघातकारित्वात्, कथं? संसार्यवस्थायामात्मा न सुखादेर्भोक्ता चेतनत्वान्मुक्तावस्थावदिति स्वेष्टस्यात्मनो भोक्तृत्वस्य विघातात् / प्रतीतिविरुद्धमिष्टविघातसाधनमिति चेत्, कर्तृत्वाभावसाधनमपि, पुंसः श्रोता घ्राताहमिति स्वकर्तृत्वप्रतीते:। यदि कहो कि द्रष्टा (चेतन) को भोग करने वाला कर्ता माना जायेगा तो मुक्तात्मा में भी कर्ता का प्रसंग आयेगा- क्योंकि मुक्तात्मा भी द्रष्टा है? जैनाचार्य कहते हैं कि- क्या सांख्य ने मुक्तात्मा को अकर्ता माना है? भावार्थ- वास्तव में मुक्त जीव भी स्वकीय अगुरुलघुगुण की अपेक्षा होने वाली षट्गुणी हानिवृद्धि रूप अर्थक्रियाएँ करते हैं, कूटस्थ नित्य नहीं होते हैं। उनके भी प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य होता रहता है। वे सिद्धात्मा निरंतर अपने अनन्तज्ञान को अनुभव करते हुए अनन्त सुख में लीन रहते हैं। सिद्धात्मा विषय सुखादिक के अकर्ता हैं? यह सांख्य ने कैसे जाना? मुक्तावस्था में विषयसुख के कारणभूत ज्ञानावरण-मोहनीयादि कर्मों के कर्त्तापन का अभाव होने से विषयसुख का कर्ता मुक्तात्मा नहीं होता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता है। इस प्रकार सांख्य के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो संसारी जीव विषयसुखादि के कारणभूत कर्म के विशेषकर्ता होने से विषयसुखादिक के कर्ता और वही आत्मा उन सुखों का भोक्ता क्यों नहीं होगा अर्थात् संसारी आत्मा स्वकीय कर्मों का कर्ता है और आप ही उनके फल का भोक्ता है। भोक्ता और कर्ता का अधिकरण एक ही है। प्रधान कर्ता है और आत्मा भोक्ता है, ऐसा नहीं है। चेतन होने से आत्मा संसार अवस्था में विषय-सुखादि का तथा उनके कारणभूत कर्मों का करने वाला नहीं है। जैसे मुक्त अवस्था में चेतन होने से विषय-सुखादिक और उसके कारणभूत कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है। सांख्य का इस प्रकार कहना भी सुन्दर नहीं है, क्योंकि यह कथन सांख्य के स्व इष्ट सिद्धान्त का विघातक है। . शंका- सांख्य के स्व इष्ट का विघातक यह कथन कैसे है? उत्तर- क्योंकि ऐसा मानने पर, "जैसे चेतन होने से मुक्तावस्था में आत्मा सुख दुःखादि का. भोक्ता नहीं है, वैसे संसार अवस्था में भी आत्मा चैतन्य होने से सुखादिक का भोक्ता नहीं होगा। परन्तु सांख्य मत में संसारावस्था में आत्मा को कर्ता तो नहीं माना है परन्तु उसके भोक्तापने का निषेध नहीं किया है। अतः सांख्य मत में संसार अवस्था में आत्मा के भोक्ता के कथन का निषेध होने से स्वमत के विघात का प्रसंग आता है।