________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 255 योक्ष्यमाणस्योपयोगस्वभावस्य च विशिष्टस्य प्रमाणसिद्धस्य धर्मित्वात्तत्र हेतोः सद्भावात् तद्विपरीते त्वात्मनि धर्मिणि तस्य प्रमाणबाधितत्वादसिद्धिरेव / न हि निरन्वयक्षणिकचित्तसंतानः, प्रधानम्, अचेतनात्मा, चैतन्यमात्रात्मा वा परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गः सिद्ध्यति; तस्य सर्वथार्थक्रियारहितत्वेनावस्तुत्वसाधनात् / नापि श्रेयसा शश्वदयोक्ष्यमाणस्तस्य गुरुतरमोहाक्रांतस्यानुपपत्तेः। स्वतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गेण योगिना व्यभिचारी हेतुरिति चेत् न, परतो ग्रहणात्। परत: प्रतिपद्यमानप्रत्यवायमार्गेणानैकांतिक इति चायुक्तं, तत्र हेतुधर्मस्याभावात् / तत एव न विरुद्धो हेतुः, श्रेयोमार्गप्रतिपित्सावन्तमंतरेण क्वचिदप्यसंभवात् / इति प्रमाणसिद्धमेतत्तद्वानेव में लगने वाले ज्ञाता, द्रष्टा, विशिष्ट प्रमाण सिद्ध आत्मा के धर्मी होने से इस पक्ष में हेतु का सद्भाव है अर्थात् मोक्षमार्ग को सुनने का जिज्ञासु ज्ञाता द्रष्टा आत्मा ही हो सकता है अतः 'जिज्ञासावान्' हेतु आत्मा में सिद्ध है। इस उपयोग स्वभावी आत्मा से भिन्न नैयायिक आदि के द्वारा कल्पित आत्मा रूपी धर्मी में उस हेतु (जिज्ञासावान्) का रहना प्रमाणबाधित होने से असिद्ध है अर्थात् अचेतन या ज्ञान से भिन्न आत्मा में मोक्षमार्ग की जिज्ञासा नहीं हो सकती है अतः जिज्ञासावान् हेतु अन्यत्र असिद्ध है परन्तु स्याद्वाद सिद्धान्त में यह हेतु असिद्ध नहीं है। बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित निरन्वय क्षणिक चित्तसन्तान, या कपिल के द्वारा कथित सत्त्व रज तमोगुण रूप प्रधान (प्रकृति) अथवा नैयायिक एवं वैशेषिक के द्वारा स्वीकृत ज्ञानचेतना से पराङ्मुख अचेतन स्वरूप आत्मा और ब्रह्माद्वैतवादियों द्वारा कथित केवल चैतन्य रूप आत्मा ये चारों तो दूसरों (गुरुजनों) के द्वारा प्रतिपाद्य श्रेयोमार्ग को जानने वाले सिद्ध नहीं होते हैं। अर्थात् निरन्वय क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली आत्मा, वा प्रकृति रूप अचेतनात्मा वा स्वयं ज्ञान रहित आत्मा मोक्षमार्ग को समझाने योग्य वा समझने वाली नहीं होती है। क्योंकि उपरिकथित स्वरूप वाली आत्मा अर्थक्रिया से रहित होने से अवस्तु है। उसका वस्तुपना ही सिद्ध नहीं है। जो आत्मा श्रेयोमार्ग का जिज्ञासु नहीं है, मोक्षमार्ग में हमेशा लगने वाला नहीं है, वह भी प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) नहीं है। क्योंकि महान् गुरुतर मोहनीय कर्म (मिथ्यात्व) से आक्रान्त चित्तवाला होने से उसके प्रति मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना युक्त नहीं है। क्योंकि तीव्र मिथ्यादृष्टि जीव के श्रेयोमार्ग में लगना या श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होना नहीं बन सकता है। स्वयं मोक्षमार्ग को जानने वाले स्वयंभू-आत्मा रूप योगी के द्वारा जिज्ञासावान् हेतु व्यभिचारी होता है। अर्थात् वह स्वयं मोक्षमार्ग को जानता है, जिज्ञासु कैसे हो सकता है? ऐसा कहना (या हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास कहना) उचित नहीं है। क्योंकि जैनाचार्य ने इस हेतु में 'परत:' यह विशेषण दिया है। अर्थात् दूसरों के द्वारा समझाने योग्य शिष्य का कथन किया है। अतः जिज्ञासावान् हेतु स्वयंभू के द्वारा अनैकान्तिक नहीं हो सकता। क्योंकि जो दूसरे के द्वारा मोक्षमार्ग को समझ रहा है, वह जिज्ञासु अवश्य है। दूसरों के द्वारा पापमार्ग को जानने वाले पुरुष से यह हेतु व्यभिचारी होता है। क्योंकि दूसरों से कुमार्ग को सुनने वाले पुरुष में 'जिज्ञासु' हेतु विद्यमान है परन्तु मोक्षमार्ग की जिज्ञासा रूप साध्य उसमें नहीं है, अतः