________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२६२ मुक्तिरितीतरेषां। परमानंदात्मकमात्मनो रूपं, बुद्ध्यादिसंबंधस्तत्प्रतिघाती, तदभावादानंदात्मकतया स्थितिः परा निर्वृतिरिति च मीमांसकानां / नैवं निर्वृतिसामान्ये कल्पनाभेदो यतस्तत्र विवादः स्यात् / मोक्षमार्गसामान्येऽपि न प्रवादिनां विवादः, कल्पनाभेदाभावात् / सम्यग्ज्ञानमात्रात्मकत्वादावेव तद्विशेषे विप्रतिपत्तेः। ततो मोक्षमार्गेऽस्य सामान्य प्रतिपित्सा विनेयविशेषस्य माभूत् इति चेत् / सत्यमेतत् / निर्वाणमार्गविशेष प्रतिपित्सोत्पत्तेः / कथमन्यथा तद्विशेषप्रतिपादनं सूत्रकारस्य प्रयुक्तं स्यात् / मोक्षमार्गसामान्ये हि विप्रतिपन्नस्य तत्त्वज्ञान के द्वारा बुद्धि आदि विशेष गुणों का क्षय हो जाने से आकाश के समान आत्मा की अचेतन अवस्था रह जाना ही मुक्ति है, ऐसा नैयायिक और वैशेषिकों का कथन है।.. आत्मा का स्वभाव परमानन्द स्वरूप है। आत्मा के बुद्धि, इच्छा आदि नौ गुणों का जो समवाय सम्बन्ध है, वही आत्मा के परमानन्द का घातक है। उन बुद्धि आदि नौ गुणों का नाश हो जाने से (अभाव हो जाने से) आत्मा की नित्य आनन्द स्वरूप अवस्था ही उत्कृष्ट निर्वृति (मोक्ष) है। इस प्रकार मीमांसकों की मुक्ति-कल्पना है। उपर्युक्त कथनों से मोक्ष के विशेष स्वरूप में बौद्धादिक का विवाद है। परन्तु इस प्रकार मोक्ष के सामान्य स्वरूप में कल्पनाभेद नहीं है जिससे कि वहाँ विवाद होता। अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप की प्राप्ति को सभी प्रवादी मोक्ष मानते हैं। सामान्य मोक्षमार्ग में भी विवाद नहीं, विवाद मोक्षमार्ग के विशेष स्वरूप में है प्रश्न- कल्पनाभेद का अभाव होने से सामान्य मोक्षमार्ग में भी प्रवादियों का विवाद नहीं है अर्थात् मोक्षमार्ग के सामान्य स्वरूप में मीमांसक, नैयायिक आदि प्रवादियों की भिन्न-भिन्न कल्पना नहीं है। परन्तु सम्यग्ज्ञान, चारित्र, श्रद्धान आदि मोक्षमार्ग के विशेष स्वरूप में विवाद है। भावार्थ- कोई ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति मानता है। कोई ज्ञान और वैराग्य से मुक्ति मानते हैं। कोई श्रद्धान मात्र से, इत्यादि विशेष मोक्षमार्ग में विवाद है। इसलिए शिष्यविशेष की मोक्षमार्ग के सामान्य को जानने की भी जिज्ञासा नहीं हो सकतीं। जैसे सामान्य मोक्ष को जानने की अभिलाषा नहीं होती है। उत्तर- जैनाचार्य कहते हैं कि यह कथन सत्य है कि 'शिष्य की मोक्षमार्ग के विशेष को जानने की इच्छा उत्पन्न हुई है। अन्यथा (यदि ऐसा नहीं होता तो) सूत्रकार आचार्य का रत्नत्रय को विशेष रूप से मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना प्रयुक्त (विशिष्ट युक्तियों से युक्त) कैसे माना जाता। क्योंकि सामान्य रूप से मोक्षमार्ग में विवाद करने वाले शिष्य के केवल सामान्य मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा होने पर 'संसार में मोक्षमार्ग है' ऐसा कहना उपयुक्त था। इससे मोक्षमार्ग की सिद्धि हो जाती है और उसका कथन करना भी सिद्ध हो जाता है। क्योंकि शिष्य की जिज्ञासा के अनुसार ही सूत्रकार के वचनों की प्रवृत्ति होती है।