________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२४४ श्रोताहमित्यादिप्रतीतेरहंकारास्पदत्वादहंकारस्य च प्रधानविवर्तत्वात्प्रधानमेव कर्तृतया प्रतीयत इति चेत्, तत एवानुभवितृ प्रधानमस्तु। न हि तस्याहंकारास्पदत्वं न प्रतिभाति शब्दादेरनुभविताहमिति प्रतीतेः सकलजनसाक्षिकत्वात्। ____ भ्रांतमनुभवितुरहंकारास्पदत्वमिति चेत्, कर्तुः कथमभ्रांतं? तस्याहंकारास्पदत्वादिति चेत्, तत एवानुभवितुस्तदभ्रांतमस्तु / तस्यौपाधिकत्वादहंकारास्पदत्वं भ्रांतमेवेति चेत्, कुतस्तदीपाधिक त्वसिद्धिः? पुरुषस्वभावत्वाभावादहंकारस्य तदास्पदत्वं पुरुषस्वभावस्यानुभवितृत्वस्यौपाधिकमिति चेत्, स्यादेवं यदि पुरुषस्वभावोऽहंकारो न स्यात् / सांख्य कहता है कि संसार अवस्था में आत्मा के भोक्तृत्व का निषेध करना तथा सांख्य के इष्ट विघात सिद्ध करना प्रतीति विरुद्ध है, क्योंकि संसारी आत्मा के सुख, दुःख आदि का भोगना सभी के अनुभव में आ रहा है। जैनाचार्य कहते हैं जैसे संसारावस्था में आत्मा के भोक्तृत्व का निषेध करना प्रतीतिविरुद्ध है, सभी प्राणियों को भोग का अनुभव हो रहा है, उसी प्रकार संसार अवस्था में आत्मा के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करना प्रतीतिविरुद्ध है। क्योंकि "मैं शब्द को सुनने वाला हूँ, घ्राता (सूंघने वाला) हूँ, कार्य का करने वाला हूँ" इत्यादि रूप से सभी प्राणियों को स्वकर्तृत्व की प्रतीति हो रही है। सांख्य कहता है कि- 'मैं सुनता हूँ', 'सूंघता हूँ', 'देखता हूँ' इत्यादि प्रतीतियाँ अहंकारास्पद हैं। (अहंकार से युक्त हैं) और अहंकार प्रधान की पर्याय है। अतः प्रधान ही कर्ता रूप से प्रतीत होता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो भोक्ता भी प्रधान का ही गुण होना चाहिए। क्योंकि भोक्तृत्व में भी 'अहं' पद लगा हुआ है। भोक्ता के अहंकार का समभिव्यवहार नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि भोक्ता में भी "मैं शब्द का अनुभव करने वाला हूँ, मैं सुख का अनुभव कर रहा हूँ, मैं दुःख का अनुभव कर रहा हूँ" इत्यादि रूप से सम्पूर्ण संज्ञी आत्माओं को भोक्ता के साथ 'अहं' का अनुभव हो रहा है, जो सकलजन साक्षी है। अर्थात् सब को कर्ता के समान भोक्ता के साथ भी 'अहं' प्रतीति हो रही है। यदि कहो कि- भोक्ता आत्मा का अहंकारास्पदत्व भ्रान्त है- तो कर्ता आत्मा का अहंकारास्पदत्व अभ्रान्त क्यों है, भ्रान्त क्यों नहीं है? यदि कहो कि कर्त्तापना तो अहंकार का स्थान ही है, अतः प्रधानरूप कर्ता को अहंकार का स्थान मानना उपयुक्त है। जैनाचार्य कहते हैं तब तो उसी प्रकार भोक्तापने का भी अहंपना अभ्रान्त मान लेना चाहिए। क्योंकि भोक्ता के साथ भी अहंकार का उल्लेख निर्बाध होता है। .. यदि कहो कि भोक्ता के साथ स्थित अहंकारास्पदत्व (अहं, मैं, मैं की प्रतीति) औपाधिक होने से भ्रान्त ही है तो जैनाचार्य पूछते हैं कि भोक्ता के साथ स्थित अहंकारास्पदत्व के औपाधिकत्व किससे सिद्ध होता है? सांख्य कहते हैं कि अनुभवन करना आत्मा का स्वभाव है, कर्तापना-अहंपना, मेरापना आत्मा का स्वभाव नहीं है। अतः पुरुषत्व के स्वभाव का अभाव होने से भोक्ता आत्मा का (मैं, मैं सुख का अनुभव कर रहा हूँ, दुःख का अनुभव कर रहा हूँ, इत्यादि) अहंकार के साथ समानाधिकरणपना प्रकृति की उपाधि से प्राप्त