________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 250 - 'दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ' इति केचित्, तेऽपि न न्यायवादिनः / सर्वसंसारिणां तत्प्रसंगात्, दुःखत्रयाभिघातस्य भावात् / आम्नायादेव श्रेयोमार्गजिज्ञासेत्यन्ये, तेषामथातो धर्मजिज्ञासेति सूत्रेऽथशब्दस्यानंतर्यार्थे वृत्तेरथेदमधीत्याम्नायादित्याम्नायादधीतवेदस्य वेदवाक्यार्थेषु जिज्ञासाविधिरवगम्यत इति व्याख्यानं / तदयुक्तं / सत्यप्याम्नायश्रवणे तदर्थावधारणेऽभ्यासे च कस्यचिद्धर्मजिज्ञासानुपपत्तेः / कालान्तरापेक्षायां तदुत्पत्तौ सिद्धं कालादिलब्धौ तत्प्रतिबंधकपापापायाच्च श्रेय:पथे जिज्ञासायाः प्रवर्तनं / "तीन दुःखों (शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक वा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीन दुःखों) के नाशक कारणों को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है, ऐसा कोई कहता है (कपिलमतानुयायी)। परन्तु ऐसा कहने वाले न्याय का कथन करने वाले नहीं हैं। वा वह नैयायिक न्याय जानने वाला नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर सर्व संसारी प्राणियों को मोक्ष की जिज्ञासा का प्रसंग आयेगा। क्योंकि सारे संसारी प्राणी इन तीनों दुःखों से पीड़ित हैं। अर्थात् सभी संसारी प्राणियों के इन दुःखों का सद्भाव है अतः सभी प्राणियों के श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा। परन्तु सभी प्राणियों को मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है। शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक पीड़ा दूर करने की इच्छा सभी प्राणियों की है, परन्तु मोक्षमार्ग की जिज्ञासा सब को नहीं है। आम्नाय (अनादिकाल से आगत वेद वाक्यों) से ही श्रेयोमार्ग में प्रवृत्त होने की जिज्ञासा (इच्छा) उत्पन्न होती है. ऐसा अन्य (मीमांसक) कहते हैं। उनके दर्शन में भी इसके बाद यहाँ से धर्म के जानने की इच्छा उत्पन्न हुई है', इस सूत्र के 'अथ' शब्द का यह व्याख्यान किया गया है कि 'अथ' शब्द की व्यवधान रहित उत्तरक्षण में होने वाले अर्थ में प्रवृत्ति है। प्रारंभ में इस वेदवाक्य को पढ़कर अर्थात् वेदवाक्य की अक्षुण्ण आम्नाय से पढ़ लिया है वेदवाक्य को जिसने (वेदवाक्य को जानने वाले उस) आत्मा को वेदवाक्यों के वाच्य अर्थों में जिज्ञासा का विधान जाना जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इन का कथन युक्तिसंगत नहीं हो सकता। क्योंकि परम्परागत वेदवाक्य के श्रवण, निर्णय, धारणा और अभ्यास कर लेने पर भी किसी पुरुष को धर्म की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं भी होती है। यदि मीमांसक यों कहे कि कालान्तर (कुछ काल के बाद या कालादि सहकारी कारणों के मिलने पर) की अपेक्षा होने पर वेदवाक्य के श्रोता को धर्मजिज्ञासा उत्पन्न होती है तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो 'कालादिलब्धि के प्राप्त होने पर किसी भव्य के मोक्षमार्ग की जिज्ञासा वा मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति होती है।' यह स्याद्वाद का कथन सिद्ध होता है।