________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 249 कालदेशादिनियममंतरेणैव सेत्यपि च न मनसि निधेयं, कालादिलब्धौ सत्यामित्यभिधानात्तथा प्रतीतेश। बृहत्पापापायमंतरेणैव सा संप्रवर्तत इत्यपि माभिमंस्त, बृहत्पापापायात्तत्संप्रवर्तनस्य प्रमाणसिद्धत्वात् / न हि क्वचित्संशयमात्रात् क्वचिजिज्ञासा, तत्प्रतिबंधकपापाक्रांतमनसः संशयमात्रेणावस्थानात् / सति प्रयोजने जिज्ञासा तत्रेत्यपि न सम्यक् , प्रयोजनानंतरमेव कस्यचिद्व्यासंगतस्तदनुपपत्तेः। कल्याणमार्ग में नहीं लगने वाले आत्मा को श्रेयोमार्ग को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ऐसा भी नहीं विचारना चाहिए। क्योंकि अनुमान में 'श्रेयोमार्ग में युक्त होने वाले' यह विशेषण दिया गया है तथा श्रेयोमार्ग में युक्त होने वाली आत्मा की सिद्धि भी कर दी गई है। विशिष्ट काल, देश आदि के नियम के बिना ही श्रेयोमार्ग को जानने की इच्छा हो जाती है, ऐसी भी मन में धारणा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अंतरंग में मोक्षमार्ग को जानने के लिए उपादान रूप भव्यता कारण है। उसी प्रकार बाह्य में सुयोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव निमित्त कारण हैं, इन दोनों कारणों की समग्रता के बिना श्रेयोमार्ग के जानने की इच्छा प्रगट नहीं हो सकती। इसलिए इस अनुमान में "कालादि लब्ध्युपेतस्य वा कालादि लब्धौ सत्यां" कालादि लब्धि की प्राप्ति होने पर ही श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ऐसा कथन किया है। और अनुभव में भी आ रहा है कि उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों से मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। तीव्र पाप (अशुभ कर्मों के तीव्र अनुभाग तथा आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति) के अपाय (नाश) के बिना ही मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। अथवा- तीव्र पाप (मिथ्यात्व कर्म) के क्षय, क्षयोपशम वा उपशम के बिना ही श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि तीव्र पाप के नाश हो जाने पर ही श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा होती है वा भव्यात्मा श्रेयोमार्ग में प्रवृत्ति करता है, यह प्रमाण से सिद्ध है। किसी पदार्थ में संशय हो जाने मात्र से किसी आत्मा में जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि श्रेयोमार्ग के जानने वा प्रवृत्ति करने के प्रतिबन्धक तीव्र पाप कर्म से आक्रान्त मन वाले प्राणी के ही संशय उत्पन्न होता है। अर्थात् तीव्र पाप कर्म के उदय में संशय की निवृत्ति नहीं हो सकती और वह संशयालु प्राणी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता। . किसी प्रयोजन से (वा सांसारिक सुख के लिए) मोक्षमार्ग की जिज्ञासा वा मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति होती है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है (प्रशंसनीय नहीं है)। क्योंकि इच्छित प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर किसी आत्मा का चित्त (परिणाम) व्यासंग से (सांसारिक सुखों की आसक्ति से) इधर-उधर भटक जाता है और मोक्षमार्ग में लगने की वा श्रेयोमार्ग को जानने की इच्छा उत्पन्न नहीं हो सकती है। अत: प्रयोजन मोक्षमार्ग की इच्छा का कारण नहीं है।