________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 220 परेषां चेतनतयावस्थितत्वात् / तदेव करणज्ञानमस्माकमिति चेत्, तत्परोक्षमिति सिद्धं साध्यते। लब्ध्युपयोगात्मकस्य भावकरणस्य छद्मस्थाप्रत्यक्षत्वात् / तजनितं तु ज्ञानं प्रमाणभूतं नाप्रत्यक्षं स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात्, तच्च नात्मनोऽर्थांतरमेवेति स एव स्वार्थव्यवसायी यदीष्टस्तदा व्यर्थ ततोऽपरं करणज्ञानं फलज्ञानं च व्यर्थमनेनोक्तं तस्यापि ततोऽन्यस्यैवासंभवात् / अथवा प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे फलज्ञाने स्वार्थाकारावभासिनि सति किमतोऽन्यत्करणं ज्ञानं पोष्यते निष्फलत्वात्तस्य / तदेव तस्य फलमिति चेत्, प्रमाणादभिन्न भिन्नं वा? यद्यभिन्नं प्रमाणमेव मीमांसक कहता है कि हमारे सिद्धान्त में भी लब्धिरूप भावेन्द्रियों को करणज्ञान माना है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि यदि लब्धिरूप इन्द्रियों को मीमांसक परोक्ष सिद्ध करते हैं तो सिद्धसाधन दोष आता है। अर्थात् जैन सिद्धान्त में भी लब्धि-आत्मक इन्द्रियों को परोक्ष स्वीकार किया गया है। क्योंकि वे लब्ध्यात्मक भावेन्द्रियाँ छद्मस्थ जीवों के प्रत्यक्ष नहीं हैं। परन्तु उन इन्द्रियों से उत्पन्न प्रमाणभूत ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा अप्रत्यक्ष नहीं है अर्थात् प्रत्यक्ष है। क्योंकि उस ज्ञान का स्वरूप है स्व और पर का निश्चय करना। वह स्व-पर का निश्चय कराने वाला ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है। यदि वह आत्मा ही स्व और पर के अर्थ का निश्चय करने वाला है तो उस आत्मा से भिन्न करणज्ञान को मानना व्यर्थ है। इस उक्त कथन से करणज्ञान के समान फलज्ञान को भी व्यर्थ कह दिया है। क्योंकि वह फलज्ञान भी आत्मा से सर्वथा भिन्न संभव नहीं है। भावार्थ- लब्धिरूप ज्ञान आत्मा का अंतरंग परिणाम है। आत्मा की वह भाव शक्ति ही ज्ञान का अभ्यन्तर कारण है। वह सर्वज्ञ के अतिरिक्त छद्मस्थ जीवों के प्रत्यक्ष नहीं है। वह ज्ञान आत्मा से अभिन्न है, आत्मा का स्वरूप है, उस आत्मा से जब पदार्थों का निश्चय हो जाता है तो करणज्ञान और फलज्ञान को मानना व्यर्थ है। अथवा- स्वयं को और पर-पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले अर्थ ज्ञप्ति रूप फलज्ञान के प्रत्यक्ष हो जाने पर इस फलज्ञान से भिन्न करण ज्ञान को क्यों पुष्ट किया जाता है? क्योंकि वस्तु के प्रत्यक्ष हो जाने पर करणज्ञान निष्फल ही रहता है। भावार्थ- यदि प्रभाकर आत्मा को प्रत्यक्ष मानता है तो करणज्ञान और फलज्ञान को मानना व्यर्थ है। यदि फलज्ञान को, स्व-पर पदार्थों को प्रत्यक्ष करना स्वीकार करते हैं तो करणज्ञान को मानना व्यर्थ है। यदि कहो कि प्रमाणज्ञान का फल ही अर्थज्ञप्ति है तो वह फलज्ञान प्रमाण से भिन्न है कि अभिन्न है? यदि फलज्ञान प्रमाण से अभिन्न है तो वह अर्थज्ञप्तिरूप फलज्ञान प्रमाण स्वरूप हो जाता है। अतः फलज्ञान को प्रत्यक्ष मानना और उससे अभिन्न करणज्ञान को अप्रत्यक्ष (परोक्ष) मानना कैसे घटित हो सकता है। (अर्थात् प्रमाण का भी प्रत्यक्ष होना प्राभाकरों को स्वीकार करना पड़ेगा)