________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 239 सन्नप्यात्मोपयोगात्मा न श्रेयसा योक्ष्यमाणः कश्चित् सर्वदा रागादिसमाक्रांतमानसत्वादिति के चित्संप्रतिपन्नाः। तान् प्रति तत्साधनमुच्यते / श्रेयसा योक्ष्यमाणः कशित् संसारव्याधिविध्वंसित्वान्यथानुपपत्तेः। श्रेयोऽत्र सकलदुःखनिवृत्तिः। सकलदुःखस्य च कारणं संसारव्याधिः / तद्विध्वंसे कस्यचित्सिद्धं श्रेयसा योक्ष्यमाणत्वं, तल्लक्षणकारणानुपलब्धेः। न च संसारव्याधेः सकलदुःखकारणत्वमसिद्ध जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात् / पारतंत्र्यं हि दुःखमिति / एतेन सांसारिकसुखस्य दुःखत्वमुक्तं, स्वातंत्र्यस्यैव सुखत्वात् / शक्रादीनां स्वातंत्र्यं सुखमस्त्येवेति चेन्न, तेषामपि कर्मपरतंत्रत्वात् / निराकांक्षतात्मकसंतोषरूपं तु सुखं न सांसारिकं, (कोई प्रतिवादी कहता है कि) ज्ञानदर्शनोपयोग स्वरूप होकर भी कोई आत्मा मोक्षमार्ग में नहीं लग सकती क्योंकि सभी आत्माओं के अन्तःकरण राग, द्वेष, मोह आदि से आक्रान्त हैं। अर्थात् सभी आत्मायें रागद्वेष से आक्रान्त हैं। अतः मोक्षमार्ग में कैसे लग सकती हैं? उसके प्रति जैनाचार्य मोक्षमार्ग में लगने को सिद्ध करने वाला हेतु सहित अनुमान कहते हैंसंसार व्याधि दुःखों की कारण है - कोई आत्मा कल्याणमार्ग से युक्त होने वाला है। क्योंकि संसार रूप व्याधियों का नाश करने वाला हेतु अन्यथा (इस साध्य के बिना) स्थित नहीं रह सकता (उत्पन्न नहीं हो सकता)। सकल दुःखों की निवृत्ति होना यहाँ श्रेय (मोक्ष) है। अर्थात् इस अनुमान में कल्याण का अर्थ है शारीरिक, मानसिक आदि सारे दुःखों की निवृत्ति हो जाना। तथा सकल दुःखों के कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के हेतु संसार में परिभ्रमण करना ही संसार-व्याधि है। ___सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप कारणों के द्वारा संसार के ध्वंस (नाश) हो जाने पर किसी आत्मा के सम्पूर्ण दुःखों की निवृत्ति रूप श्रेय (कल्याण) से संयुक्त हो जाना सिद्ध हो जाता है। तथा संसारव्याधिरूप कारण की अनुपलब्धि हो जाने से कल्याणमार्ग में लग जाना रूप साध्य की सिद्धि हो जाती है। आत्मा की पराधीनता का कारण होने से संसार-व्याधि के सकल दुःखकारणत्व असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि पराधीनता ही दुःख का कारण है। पराधीनता रूप हेतु से सांसारिक सुख भी दुःख रूप है, ऐसा कथन किया है। क्योंकि स्वाधीनता ही सुख है। इन्द्रियजन्य सुख स्वतंत्र नहीं है, पराधीन है, क्षणिक है, आकुलता का उत्पादक है, अत: दुःख रूप ही है। इन्द्र, चक्रवर्ती आदि तो स्वतंत्र हैं, स्वाधीन हैं, अत: उनके तो सुख है- अर्थात् इन्द्र चक्रवर्ती आदि वास्तव में सुखी हैं। ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के भी कर्मों की परतंत्रता है। अर्थात् सारे ही संसारी प्राणी कर्माधीन हैं, अतः दुःखी हैं। चक्रवर्ती, इन्द्र आदि भी स्वतंत्रता से सुखी नहीं .. इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों की आकांक्षाओं से रहित जो संतोषरूप सुख हैं, वह संसार का सुख नहीं है अपितु एकदेश मोक्ष का सुख है। एकदेश मोहनीय कर्म के (अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण मिथ्यात्व कर्म के) क्षयोपशम, उपशम वा क्षय हो जाने पर आत्मा के विषयों की आसक्ति में निराकांक्षता (विरक्ति) उत्पन्न 1. यह हेतु 'विरुद्धकारणानुपलब्धि' है। यदि ध्वंस को भाव रूप माना जाय तो अविरुद्ध कारणोपलब्धि स्वरूप है।