________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२३८ ननु च नश्वरज्ञानस्वभावत्वे पुंसो नश्वरत्वप्रसंगो बाधक इति चेत् न, नश्वरत्वस्य नरेऽपि कथंचिद्विरोधाभावात्, पर्यायार्थतः परपरिणामाक्रांततावलोकनात्, अपरिणामिनः क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियानुपपत्तेर्वस्तुत्वहानिप्रसंगानित्यानित्यात्मकत्वेनैव कथंचिदर्थक्रियासिद्धिरित्यलं प्रपंचेन, आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकस्य प्रसिद्धः। संसारव्याधिविध्वंस: क्वचिजीवे भविष्यति। तन्निदानपरिध्वंससिद्धेवरविनाशवत् / / 245 // तत्परिध्वंसनेनातः श्रेयसा योक्ष्यमाणता। पुंसः स्याद्वादिनां सिद्धा नैकांते तद्विरोधतः // 246 // की ही प्रसिद्धि होती है। दर्शन और ज्ञान में विशेषता का अभाव है। अर्थात् ऐसी कोई विशेषता नहीं है कि जिससे दर्शन आत्मा का स्वभाव और ज्ञान प्रकृति का स्वभाव सिद्ध हो सकता हो। शंका- नाशवन्त ज्ञान को आत्मा का स्वभाव स्वीकार करने पर आत्मा के भी क्षणभंगुरत्व का प्रसंग आयेगा, यह बाधक है। आत्मा परिणमनशील है - उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि आत्मा में कथंचित् नश्वरत्व (नाशस्वभाव) मानने में विरोध का अभाव है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा निरन्तर भिन्न-भिन्न पर्यायों में व्याप्त होता हुआ देखा जाता है। अर्थात् आत्मा निरन्तर परिणमन करता रहता है अतः पर्याय से नश्वर है। आत्म द्रव्य नित्य है। उसकी अभिन्न पर्यायें उत्पाद-विनाशशील है। अपरिणामी कूटस्थ नित्य आत्मा के क्रम और अक्रम से होने वाली अर्थक्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है। और अर्थक्रिया न होने से आत्मा के वस्तुत्व की हानि का प्रसंग आता है। अत: आत्मा को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य स्वीकार करने से ही अर्थक्रिया की सिद्धि होती है। इस प्रकार अधिक विस्तार से क्या प्रयोजन है। आत्मा के ज्ञान और दर्शन उपयोग की प्रसिद्धि है। अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों आत्मा के ही स्वभाव सिद्ध होते हैं। संसार का क्षय होना सिद्ध है किसी-किसी जीव में संसारव्याधि (सर्व सांसारिक दुःखों) का विनाश होगा। क्योंकि संसार की व्याधि के कारणों (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र वा रागद्वेष मोहादि विकार भावों) का क्षय होना सिद्ध है। जैसे ज्वर के कारणों का विनाश हो जाने से ज्वर का विनाश सिद्ध हो जाता है। तथा उन संसार के कारणों का नाश होने से आत्मा का मोक्षमार्ग में लगना सिद्ध होता है। अतः स्याद्वाद मत में नित्यानित्यात्मक ज्ञानदर्शनोपयोगी परिणामी आत्मा के मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है। सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य आत्मा में मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि सर्वथा कूटस्थ नित्य (सांख्य) वा सर्वथा क्षणिक (बौद्ध) में मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं हो सकती है। सर्वथा एकान्त में अर्थक्रिया का विरोध है।।२४५-२४६॥