________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 222 चेत् / किं पुनरियं परिच्छित्तिरर्थधर्मः? तथोपगमे प्रमाणफलत्वविरोधोऽर्थवत् / प्रमातृधर्मः सेति चेत् कथं, कर्मकर्तृत्वेन प्रतीतेः। न कर्मकारकं नापि कर्तृकारकं परिच्छित्तिः क्रियात्वात् क्रियायाः कारकत्वायोगात्। क्रियाविशिष्टस्य द्रव्यस्यैव कारकत्वोपपत्तेरिति चेत् / तर्हि न फलज्ञानस्य कर्मत्वेन प्रतीतिर्युक्ता क्रियात्वेनैव फलात्मना प्रतीतिरिति न प्रत्यक्षत्वसंभवः करणज्ञानवदात्मवद्वा। तस्यापि च परोक्षत्वे प्रत्यक्षोऽर्थो न सिद्ध्यति। ___ ततो ज्ञानावसाय: स्यात् कुतोऽस्यासिद्धवेदनात् / / 224 // फलज्ञानमात्मा वा परोक्षोऽस्तु करणज्ञानवदित्ययुक्तमर्थस्य प्रत्यक्षतानुपपत्तेः। प्रत्यक्षां स्वपरिच्छित्तिमधितिष्ठन्नेव ह्यर्थः प्रत्यक्षो युक्तो नान्यथा, सर्वस्य सर्वदा सर्वथार्थस्य यदि अर्थ की ज्ञप्ति को प्रमाता (आत्मा) का धर्म मानोगे तब तो वह अर्थ की ज्ञप्ति कर्म रूप से प्रतीत कैसे हो सकती है। (क्योंकि मीमांसक सिद्धान्त में कर्ता और कर्म दोनों के एक साथ रहने का विरोध है।) (मीमांसक) परिच्छित्ति कर्ताकारक भी नहीं है और कर्मकारक भी नहीं है। क्योंकि परिच्छित्ति क्रिया रूप है और क्रिया के कारकत्व का अयोग है। परन्तु क्रियाविशिष्ट द्रव्य के ही कारकत्व (कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण) की उत्पत्ति (निष्पत्ति) सिद्ध है। जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक के इस कथन से फलज्ञान की कर्मपने से प्रतीति होना युक्त नहीं हो सकता। अर्थात् फलज्ञान की कर्मत्व से प्रतीति होती है, यह कथन युक्तिसंगत नहीं होगा। क्योंकि मीमांसक के कथनानुसार प्रमाण के फलस्वरूप ज्ञप्ति की क्रियारूप से ही प्रतीति होती है। अत: करणज्ञान के समान वा आत्मा के समान फलज्ञान का प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है। अर्थात् जैसे मीमांसक मत में प्रमाण ज्ञान और आत्मा कर्म न होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं है, वैसे फलज्ञान भी कर्म न होने से प्रत्यक्ष नहीं है। तथा फलज्ञान का भी परोक्षत्व मान लेने पर घट, पट आदि पदार्थों का प्रत्यक्ष होना सिद्ध नहीं होगा। और जिस का प्रत्यक्ष होना असिद्ध है (वा जिसका वेदन होना ही असिद्ध है) उस ज्ञान से पदार्थों का निर्णय वा ज्ञान का निश्चय कैसे हो सकता है? // 224 // प्रमाणात्मक करणज्ञान के समान फलज्ञान और प्रमाता आत्मा भी परोक्ष है अर्थात् इन तीनों की स्वसंवेदन ज्ञान से वा ज्ञानान्तर से प्रत्यक्षता नहीं है। ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर पदार्थों की प्रत्यक्षता सिद्ध नहीं हो सकती। जो ज्ञान स्व को जानने वाली प्रत्यक्षात्मक परिच्छित्ति पर आरूढ़ है- वही पदार्थ का निश्चय कर सकता है, यह कहना युक्त है। अन्यथा जो अपने विषयी ज्ञान की प्रत्यक्षरूप ज्ञप्ति होने पर आरूढ़ नहीं है उसका प्रत्यक्ष होना मानना अयुक्त है। यदि स्व का प्रत्यक्ष किये बिना ही पदार्थों का प्रत्यक्ष होना मान लिया जायेगा तो सभी काल में सभी जीवों के सर्व प्रकार से पदार्थों के प्रत्यक्ष होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् ज्ञान के प्रत्यक्षं हुए बिना ही पदार्थ प्रत्यक्ष हो जायेंगे तो सभी के सर्वज्ञ होने का प्रसंग आयेगा।