________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 218 सर्वथा भिन्नाभिन्नात्मकत्वे करणफलज्ञानादात्मनस्तदुभयपक्षोक्तदोषदुष्टता / कथंचिद्भिन्नात्मकत्वे स्याद्वादाश्रयणमेवास्तु विरोधाभावात्। स्वावरणक्षयोपशमलक्षणायाः शक्ते: करणज्ञानरूपायाः द्रव्यार्थाश्रयणादभिन्नस्यात्मनः परोक्षत्वं. स्वार्थव्यवसायात्मकाच्च फलज्ञानादभिन्नस्य प्रत्यक्षत्वमिति स्याद्रादाश्रयणेन किंचिद्विरोधमुत्पश्यामः / सर्वथैकांताश्रयणे विरोधात् / तस्मादात्मा स्यात्परोक्षः स्यात्प्रत्यक्षः। प्रभाकरस्याप्येवमविरोधः किं न स्यादिति चेत् न, करणफलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यक्षयोरव्यवस्थानात् / तथाहि प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे स्वार्थाकारावभासिनि। किमन्यत्करणज्ञानं निष्फलं कल्प्यतेऽमुना // 223 // ... करणरूप (क्षयोपशम जानने की शक्ति को करणज्ञान कहते हैं।) प्रमाणज्ञान और प्रमिति रूप फलज्ञान (स्व पर अर्थ के निश्चयात्मक ज्ञान को फलज्ञान कहते हैं।) से आत्मा को सर्वथा (एकान्त रूप से) भिन्न, अभिन्न वा भिन्नाभिन्न मानने पर सर्व दोषों का प्रसंग आता है। वह निर्दोष सिद्ध नहीं होता है। परन्तु कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न और कथंचित् उभयात्मक मानने पर स्याद्वाद का आश्रय . होता है। उस स्याद्वाद के कथन में- कथंचित् भेद-अभेद आदि के कथन में विरोध का अभाव है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम स्वरूप जानने की शक्ति को अंतरंग करणात्मक ज्ञान कहते हैं। (लब्धि आत्मक ज्ञान को करण कहते हैं।) तथा अर्थ के निश्चय करने रूंप उपयोगात्मक ज्ञान को फलज्ञान कहते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वावरण क्षयोपशम लक्षण करणज्ञान रूप शक्ति से अभिन्न आत्मा के कथंचित् परोक्षपना है (क्योंकि शक्ति परोक्ष है, अतः शक्ति से अभिन्न आत्मा भी परोक्ष है)। __अपने और अर्थ के निश्चयात्मक फलज्ञान से अभिन्न आत्मा के कथंचित् प्रत्यक्षपना है। (क्योंकि उपयोग स्वरूप फलज्ञान का प्रत्यक्ष अनुभव होता है) अतः फलज्ञान से अभिन्न आत्मा में भी कथंचित् प्रत्यक्षपना है। इस प्रकार स्याद्वाद का आश्रय लेने पर हमको कोई विरोध नहीं दिख रहा है। क्योंकि सर्वथा एकान्त का आश्रय लेने पर ही विरोध आता है। इसलिए आत्मा कथंचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् परोक्ष है। मीमांसक कहता है कि स्याद्वादी के समान प्रभाकर सिद्धान्त के भी आत्मा के परोक्ष और प्रत्यक्ष में विरोधरहितता क्यों नहीं है? जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि मीमांसक मत में करणज्ञान के परोक्षत्व और फलज्ञान के प्रत्यक्षत्व व्यवस्थित नहीं है। - भावार्थ- जैन सिद्धान्त में करण (लब्धि) रूप ज्ञान परोक्ष है। क्योंकि हमारे इन्द्रियगोचर नहीं है और उपयोगात्मक फलज्ञान प्रत्यक्ष है क्योंकि अनुभव में आ रहा है, इन्द्रियगोचर भी है। परन्तु मीमांसक मत में इस प्रकार करणज्ञान और फलज्ञान की व्यवस्था नहीं है। . स्व-पर प्रकाशक अर्थज्ञान को प्रत्यक्ष (सर्वथा प्रत्यक्ष) मान लेने पर प्रभाकर के द्वारा दूसरे करणज्ञान की निष्फल कल्पना क्यों की जाती है॥२२३॥