________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 212 धर्मिधर्माभिधायिनोः शब्दयोरेव भेदात्ततः कर्तृता स्वरूपेण प्रतिभाति न पुनरन्यया कर्तृतया, यतः सा की स्यात् / कर्ता चात्मा स्वरूपेण चकास्ति नापरास्य कर्तृता यस्याः प्रत्यक्षत्वे पुंसोऽपि प्रत्यक्षत्वप्रसंग इति चेत् / तात्मा तद्धर्मो वा प्रत्यक्षः। स्वरूपेण साक्षात्प्रतिभासमानत्वान्नीलादिवत् / नीलादिर्वा न प्रत्यक्षस्तत एवात्मवत्। नीलादिः प्रत्यक्षः साक्षात् क्रियमाणत्वादिति चेत् / तत एवात्मा प्रत्यक्षोऽस्तु / कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वान्न प्रत्यक्ष इति चेत् / व्याहतमेतत् / साक्षात्प्रतीयमानत्वं हि विषयीक्रियमाणत्वं, विषयत्वमेव च कर्मत्वं, तच्चात्मन्यस्ति / कथमन्यथा प्रतीयमानतास्य स्यात्। कथन से आत्मा का कर्तृत्व धर्म ही कर्ता सिद्ध होता है। पुन: आत्मा कर्ता सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि प्रभाकर के सिद्धान्त में कर्तृत्व धर्म से आत्मा सर्वथा भिन्न है। “कर्तृत्व धर्म से आत्मा का कर्तृत्व धर्म जाना जाता है और कर्तृत्व धर्म के ज्ञात हो जाने पर कर्तृत्व धर्म से सर्वथा भिन्न आत्मा कर्ता हो जाता है," यह कथन व्यवस्थित नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने में अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् ऐसा मानने पर तो कोई भी किसी का कर्ता बन जायेगा। - शंका- (मीमांसक) कर्ता आत्मा धर्मी है और कर्तृत्व यह आत्मा का धर्म है। वह कथंचित् आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाला है। अतः वहाँ वह आत्मा का रूप से प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार की प्रतीति का विषयभूत अर्थ है- वह आत्मा ही है, ऐसा सिद्ध होता है। क्योंकि धर्म और धर्मी को कहने वाले शब्दों में ही भेद है। अर्थात् धर्मी आत्मा है- और कर्तृत्व धर्म है- अर्थ में कोई भेद नहीं है; जैसे तत्त्वार्थ श्रद्धान और सम्यग्दर्शन इसमें शब्द भेद है- अर्थ भेद नहीं है। इसलिए आत्मा के अपने रूप से ही कर्तत्व की प्रतीति होती है। आत्मा से भिन्न अन्य कर्तृत्व से वह नहीं जानी जाती है। जिससे कि वह कर्तृता ही ज्ञप्ति की कीं हो सके। कर्ता आत्मा अपने स्वरूप से ही प्रकाशित है। इस आत्मा की कर्तृता भी आत्मा से भिन्न नहीं है। जिस कर्तृता का प्रत्यक्ष होने पर आत्मा के भी प्रत्यक्ष होने का प्रसंग आता है। उत्तरजैनाचार्य कहते हैं कि- यदि मीमांसक इस प्रकार कहते हैं तब तो आत्मा और उस आत्मा का धर्म कर्तृत्व ये दोनों प्रत्यक्ष हो जायेंगे। क्योंकि जिस प्रकार नीलादि पदार्थ अपने स्वरूप से स्पष्ट होकर प्रतिभासित हो रहे हैं, उसी प्रकार आत्मा और आत्मा का धर्म कर्त्तापना भी अपने स्वरूप से साक्षात् प्रतिभासित हो रहा यदि स्वरूप से प्रतिभासित आत्मा को प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं मानते हो तो आत्मा के समान नीलादि का प्रत्यक्ष प्रतिभास भी नहीं मानना चाहिए। यदि कहो कि नीलादि बाह्य पदार्थों का विशद रूप से साक्षात् प्रतिभासन किया जा रहा है- इसलिए वे प्रत्यक्ष हैं तो हम भी कह सकते हैं कि आत्मा का भी साक्षात् विशद प्रतिभासन किया जा रहा है इसलिये आत्मा भी प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है। 'जिस प्रकार घट पट आदि बाह्य पदार्थ कर्मत्व रूप से प्रतीत होते हैं वैसे आत्मा कर्मत्व रूप से प्रतीत नहीं होता है- अतः आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है' इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने में (इस कथन में) व्याघात दोष आता है। अर्थात् यह कथन स्ववचन बाधित है। क्योंकि पूर्वकथित