________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 176 किमध्यारोप्यमाणो धर्मः कल्पना, मनोविकल्पमात्रं वा, वस्तुनः स्वभावो वा? प्रथमद्वितीयपक्षयोः सिद्धसाधनमित्युच्यते निश्शेषकल्पनातीतं संचिन्मानं मतं यदि। तथैवांतर्बहिर्वस्तु समस्तं तत्त्वतोऽस्तु नः॥१७१।। समस्ताः कल्पना हीमा मिथ्यादर्शननिर्मिताः। स्पष्टं जात्यंतरे वस्तुन्यप्रबाधं चकासति // 172 // अनेकांते ह्यपोद्धारबुद्धयोऽनेकधर्मगाः। कुतश्चित्संप्रवर्ततेऽन्योन्यापेक्षाः सुनीतयः // 173 // यस्मान्मिथ्यादर्शनविशेषवशान्नित्याद्येकांता: कल्पमानाः स्पष्टं जात्यंतरे वस्तुनि निर्बाधमवभासमाने तत्त्वतो न संतीति स्वयमिष्टं, यतश्शानेकांते प्रमाणतः प्रतिपन्ने वस्तु में असत् (अविद्यमान) धर्मों का आरोपण करना कल्पना है, कि मानसिक संकल्पविकल्प का नाम कल्पना है? या वस्तु का स्वभाव कल्पना है? प्रथम और द्वितीय पक्ष में सिद्ध-साधन दोष है यानी पहली दो प्रकार की कल्पनाओं से रहित ज्ञान को हम भी समीचीन ज्ञान मानते हैं। इसी का आचार्य कथन करते हैंसभी पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं यदि आरोपित धर्म और मानसिक संकल्प रूप सम्पूर्ण कल्पनाओं से रहित संचिन्मात्र (शुद्ध ज्ञान मात्र) ही तत्त्व है तो उसी प्रकार हमारे स्याद्वाद मत में भी अंतरंग (आत्मा) और बहिरंग (घटपदादि) सारी वस्तुएँ परमार्थ से कल्पना रहित हैं। क्योंकि यह सारी मानसिक कल्पना मिथ्यादर्शन के निमित्त से होती है, वास्तविक नहीं है। अत: ज्ञान कल्पनारहित सिद्ध होता है। क्योंकि कल्पना रहित अनेक स्वभाव वाले जात्यन्तर वस्तु का स्यात् और अबाधित प्रतिभास हो रहा है। अतः अपरमार्थभूत धर्मों की कल्पना मिथ्यात्वयुक्त पुरुष के ही होती है। सम्पूर्ण पदार्थ वास्तव में अनेक धर्मात्मक हैं। उस अनेक धर्मात्मक वस्तु में मिथ्यादृष्टि जीव ही कल्पित अनेक एकान्तधर्मगामी होकर कुमार्ग में प्रवृत्ति कर रहे हैं। यदि एकान्त रूप से नित्य वा अनित्य रूप वस्तु का निरूपण करने वाले मिथ्यामार्गी परस्पर सापेक्ष कथन करने वाले हो जाते हैं तो वही नय समीचीन हो जाता है॥१७१-१७२-१७३॥ सर्वथा एकान्त से रहित अनेक धर्मात्मक वस्तु का निश्चय हो जाने पर भी एकान्त, विपरीत और गृहीत मिथ्यादर्शन विशेष की पराधीनता से उत्पन्न नित्य, अनित्य आदि एकान्त कल्पना जात्यन्तर वस्तु में बाधारहित स्पष्ट अवभासित होने पर भी यह कल्पना वास्तविक नहीं है, ऐसा स्वयं बौद्धों ने स्वीकार किया है। - तथा प्रमाण के द्वारा अनेकान्त के सिद्ध हो जाने पर भी कहीं पर प्रमाता (जानने वाले) की विवक्षा के भेद से वस्तु में पृथक्-पृथक् माने गये क्षणिकत्व नित्य आदि अनेक धर्मों का विषय करने