________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 202 जानातीति क्रिया स्वात्मनि स्यायेन विरुध्येत। कथमन्यथा कटं करोतीति क्रियाऽपि कटकारस्य स्वात्मनि न स्याद्यतो न विरुध्यते / कर्तुः कर्मत्वं कथंचिद्भिन्नमित्येतस्मिस्तु दर्शने ज्ञानस्यात्मनो वा स्वात्मनि क्रिया दूरोत्सारितैवेति न विरुद्धतामधिवसति। ततो ज्ञानस्य स्वसंवेदकताप्रतीते: स्वात्मनि क्रियाविरोधो बाधकः प्रत्यस्तमितबाधकप्रतीत्यास्पदं चार्थसंवेदकत्ववत्स्वसंवेदकत्वं ज्ञानस्य परीक्षकैरेष्टव्यमेव। प्रतीत्यननुसरणेऽनवस्थानस्य स्वमतविरोधस्य वा परिहर्तुमशक्तेः। ततो न जडात्मवादिनां ज्ञानवानहमिति प्रत्ययो ज्ञाताहमिति प्रत्ययवत् पुरुषस्य ज्ञानविशिष्टस्य ग्राहकः। किं चाहप्रत्ययस्यास्य पुरुषो गोचरो यदि। तदा कर्ता स एव स्यात् कथं नान्यस्य संभवः // 205 // .. कथंचित् कर्ता से कर्मपना भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है इस स्याद्वाद दर्शन में तो ज्ञान का या.आत्मा का अपनी आत्मा में क्रिया करना दूर फेंक दिया गया ही है। अर्थात् ज्ञान अपने को जानता है, संवेद्य, संवेदक और संवित्ति इन तीनों अंशों के पिण्ड को ज्ञान माना है। ज्ञान संवेद्य (कर्म), संवेदक (कर्ता) और संवित्ति (क्रिया) इन तीनों का समुदाय है। इसमें कोई विरोध नहीं है। इसमें स्वात्म क्रिया में विरुद्धता नहीं आ सकती। इसलिए ज्ञान की स्वसंवेदकता की प्रतीति होने से 'अपनी आत्मा में अपनी क्रिया का होना विरुद्ध है। इस बाधक दोष का निराकरण कर दिया गया है। अर्थात् स्व में क्रिया होने की निर्बाध प्रतीति के अनुसार दोष . स्वयं बाधित हो जाते हैं। अथवा जो बाधक स्वयं बाध्य होने का स्थान है, वह प्रतीतिप्रसिद्ध विषयों में बाधा नहीं दे सकता। इसलिए परीक्षकों को (विचारशील पुरुषों को) ज्ञान के अर्थसंवेदकत्व (अर्थ को जानने) के समान स्वसंवेदकत्व (स्व को जानना) भी स्वीकार करना चाहिए। अत: ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक है। आत्मा प्रमाता प्रमाण प्रमेय और प्रमिति चारों रूप है प्रमाण प्रसिद्ध प्रतीति के अनुसार नहीं चलने वाले और अवसर के अनुसार मत को पलट देने वाले (अर्थात् कभी कुछ कहने वाले, कभी और कुछ कहने वाले) नैयायिक के स्वमत के विरोध का परिहार करना अशक्य होगा। अर्थात् कर्ता और कर्म के सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद पक्ष को स्वीकार करने पर नैयायिकों के अपने मत का विरोध वा अनवस्था दोष तथा अपसिद्धान्त इन दोषों का परिहार करना कठिन होगा। (अपने सिद्धान्त के घातक कथन को अपसिद्धान्त कहते हैं।) इसलिये ज्ञान से सर्वथा भिन्न जड़ स्वरूप आत्मा को मानने वाले नैयायिकों के "मैं ज्ञानवान हूँ" इस प्रकार की प्रतीति नहीं हो सकती। जैसे 'मैं ज्ञाता हूँ ज्ञानविशिष्ट आत्मा की ग्राहक नहीं है। अर्थात् आत्मा से भिन्न स्थित ज्ञान समवाय सम्बन्ध से 'मैं ज्ञाता हूँ वा ज्ञानवान हूँ' इस प्रकार की प्रतीति उत्पन्न नहीं करा सकता और न वह प्रतीति आकाश आदि जड़ पदार्थों से भिन्न ज्ञान विशिष्ट आत्मा की ग्राहक (ग्रहण करने वाली) हो सकती है। अथवा- 'अहं' मैं, मैं इस प्रतीति का विषय यदि पुरुष है (आत्मा है) तो इस प्रतीति का कर्ता आत्मा कैसे होगा? वह तो प्रतीति (ज्ञान) का विषय होने से प्रमेय (कर्म) होगा। अतः दूसरे कर्ता की संभवता कैसे नहीं होगी? अर्थात् नैयायिक दर्शन में एक पदार्थ कर्ता (प्रमाता) और कर्म (प्रमेय) दोनों नहीं हो सकता। अत: प्रतीति का विषय आत्मा ही प्रमेय और आत्मा ही ज्ञाता सिद्ध कैसे हो सकता है और आत्मा का ज्ञाता अन्य संभव नहीं है॥२०५॥