________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 199 तदा तदपि तद्वेदकं ज्ञानमपरेण ज्ञानेन वेद्यमिष्यतामित्यनवस्था दुःपरिहारा / नन्वर्थज्ञानपरिच्छेदे तदनंतरज्ञानेन व्यवहर्तुराकांक्षाक्षयादर्थज्ञानपरिच्छित्तये न ज्ञानांतरापेक्षास्ति, तदाकांक्षया वा तदिष्यत एव / यस्य यत्राकांक्षाक्षयस्तत्र तस्य ज्ञानांतरापेक्षानिवृत्तेस्तथा व्यवहारदर्शनात्ततो नानवस्थेति चेत्, तयर्थज्ञानेनार्थस्य परिच्छित्तौ कस्यचिदाकांक्षाक्षयात्तज्ज्ञानापेक्षाऽपि माभूत् / तथेष्यत एवेति चेत्, परोक्षज्ञानवादी कथं भवता अतिशय्यते? ज्ञानस्य कस्यचित् प्रत्यक्षत्वोपगमादितिचेत्, यस्याप्रत्यक्षतोपगमस्तेन परिच्छिन्नोऽर्थ : कथं प्रत्यक्षः? संतानांतरज्ञानपरिच्छिन्नार्थवत् / प्रत्यक्षतया प्रतीतेरिति चेत्, तहप्रत्यक्षज्ञानवादिनोऽपि तत एवार्थः प्रत्यक्षोऽस्तु / तथा चार्थिका सर्वज्ञज्ञानस्य जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आता है। क्योंकि पूर्व ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होती है और उसको जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होती है, इस प्रकार अनवस्था दोष का परिहार दुर्निवार होगा, दुःशक्य होगा। (अतः ज्ञान स्व को जानता है इसमें कोई विरोध नहीं है)। शंका- पूर्व अर्थज्ञान को जानने में उपयोगी उसके अव्यवहित उत्तरवर्ती दूसरे ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। उस दूसरे ज्ञान से ही ज्ञाता के व्यवहार (व्यापार) की अभिलाषाओं का क्षय हो जाता है। (जानने की आकांक्षायें समाप्त हो जाती हैं) इसलिए अर्थज्ञान को जानने के लिये ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती है। यदि कोई दूसरे, कोई तीसरे, चौथे ज्ञान की इच्छा करेगा तो उसके दूसरे आदि ज्ञान का उत्पन्न होना इष्ट ही है। जिस व्यक्ति की आकांक्षा की जहाँ निवृत्ति हो जाती है, (आकांक्षा क्षय हो जाती है) वहाँ उसके ज्ञानान्तर अपेक्षा की निवृत्ति हो जाती है। और वैसा व्यवहार भी देखा जाता है। इसलिए अनवस्था दोष नहीं आता है। समाधानः जैनाचार्य कहते हैं कि अर्थज्ञान के द्वारा अर्थ की प.च्छित्ति हो जाने पर (ज्ञप्ति हो जाने पर) किसी की आकांक्षा क्षय हो जाने से पूर्वज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। नैयायिक कहते हैं कि यह हमको इष्ट है कि जानने की आकांक्षा शांत हो जाने पर दूसरे ज्ञान का प्रश्न नहीं उठाया जाता है अर्थात् यदि पूर्वज्ञान ही घट को जान लेता है, भविष्य में घट ज्ञान को जानने के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि आपके द्वारा ऐसा मानने पर परोक्ष ज्ञानवादी का उल्लंघन कैसे किया जाता है। अर्थात् परोक्ष ज्ञानवादी परोक्ष ज्ञान के द्वारा ही घट आदि का प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं। यदि किसी को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है तब ज्ञानजन्य ज्ञातता से ज्ञान का अनुमान करना मीमांसक इष्ट करते हैं। अत: मीमांसक और नैयायिक मत में कोई अन्तर नहीं रहेगा। नैयायिक कहते हैं कि हमारे सिद्धान्त में किसी ज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं- अर्थात् हम किसीकिसी ज्ञान का दूसरे ज्ञानों से प्रत्यक्ष होना मान लेते हैं परन्तु मीमांसक तो किसी भी ज्ञान को प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। - जैनाचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहते हो तो जिस ज्ञान को अप्रत्यक्ष स्वीकार किया है उस ज्ञान के द्वारा परिच्छिन्न (ज्ञात) पदार्थ प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? जैसे संतानान्तर के द्वारा परिच्छिन्न (ज्ञात) पदार्थ दूसरे को प्रत्यक्ष नहीं होते हैं, उसी प्रकार अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा जाना गया पदार्थ प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है- अर्थात् नहीं हो सकता।