________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 198 वार्तं तस्य तत्कारकत्वात् / प्रमाणत्वात्तस्य ज्ञापकं तदित्यप्यसारं साधकतमस्य कारकविशेषस्य प्रमाणत्ववचनात् / न हि विशेषणज्ञानं प्रमाणं विशेष्यज्ञानं तत्फलमित्यभिदधानस्तत्तस्य ज्ञापकमिति मन्यते। किं तर्हि? विशेष्यज्ञानोत्पत्तिसामग्रीत्वेन विशेषणज्ञानं प्रमाणमिति / तथा मन्यमानस्य च कानवस्था नामेति / तदेतदपि नातिविचारसहं / एकात्मसमवेतानंतरज्ञानग्राह्यमर्थज्ञानमिति सिद्धांतविरोधात् / यथैव हि विशेषणार्थज्ञानं पूर्वं प्रमाणफलं प्रतिपत्तुराकांक्षानिवृत्तिहेतुत्वान्न ज्ञानांतरमपेक्षते तथा विशेष्यार्थज्ञानमपि विशेषणज्ञानफलत्वात्तस्य। यदि पुनर्विशेषणविशेष्यार्थज्ञानस्य स्वरूपापरिच्छेदकत्वात्स्वात्मनि क्रियाविरोधादपरज्ञानेन वेद्यमानतेष्टा जानने की अभिलाषा दूर हो जाती है। इसलिये नहीं जाना हुआ भी फल रूप विशेषण ज्ञान अपने विशेष्य के ज्ञान का ज्ञापक हेतु हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिक के द्वारा इस प्रकार विशेषण ज्ञान का कथन करना कोरी बकवास है। क्योंकि नैयायिक दर्शन में विशेषण के ज्ञान को विशेष्य ज्ञान का कारक हेतु माना है। (और अब उसे ज्ञापक हेतु मान रहे हैं।) प्रमाणत्व होने से विशेषण का ज्ञान ज्ञापक है। यद्यपि विशेषण के साथ होने वाले इन्द्रियों के सन्निकर्ष रूप प्रमाण का फल है और वह विशेष्य की ज्ञप्ति का कारण भी है। अत: वह विशेषण ज्ञान प्रमाण हो जाने के कारण विशेष्य का ज्ञापक हेतु हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह भी नैयायिक का कथन निस्सार है। क्योंकि 'साधकतम कारक विशेष के ही प्रमाणपना है।' ऐसा कहा गया है। नैयायिक कहता है कि विशेषण के ज्ञान को प्रमाण और विशेष्य के ज्ञान को उसका फल कहने वाले नैयायिक 'विशेषण ज्ञान विशेष्य का ज्ञापक है' ऐसा नहीं मानते हैं। शंका- तो नैयायिक क्या मानते हैं? समाधान- विशेष्य ज्ञान की उत्पत्ति में सामग्री रूप (सहकारी कारण) होने से विशेषण ज्ञान प्रमाण है, इस प्रकार मानने वाले नैयायिकों के अनवस्था दोष कैसे आ सकता है? जैनाचार्य कहते हैं कि- इस प्रकार नैयायिकों का कथन परीक्षा रूप विचारों को सहन करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि नैयायिकों के सिद्धान्त में “एक आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहने वाला घट आदि पदार्थों का ज्ञान अव्यवहित द्वितीय क्षणवर्ती ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हो जाता है" इस कथन के द्वारा विरोध आता है। जैसे ही विशेषण रूप अर्थ का ज्ञान पूर्व विशेषण और इन्द्रिय सन्निकर्ष रूप प्रमाण का फल हो चुका है, वह ज्ञाता की अभिलाषाओं की निवृत्ति का हेतु हो जाने से दूसरे ज्ञानों की अपेक्षा नही करता है। वैसे ही विशेष्य रूप अर्थ का ज्ञान भी उस विशेषण ज्ञान रूप प्रमाण का फल हो जाने से अपने जानने में दूसरे ज्ञानों की अपेक्षा नहीं करेगा। ऐसा मानने पर अनवस्था दोष तो नहीं आता है। परन्तु नैयायिक सिद्धान्त में ऐसा माना नहीं है, उनके मत में पूर्व ज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा अवश्य जाना जाता है। ज्ञान स्वसंवेद्य नहीं है। तब अनवस्था दोष दूर कैसे हो सकता है? यदि फिर भी नैयायिक कहेंगे कि विशेषण रूप अर्थ और विशेष्य रूप अर्थ ज्ञान के स्वात्मा में क्रिया का विरोध होने से स्वरूप-परिच्छेदकत्व का अभाव है अर्थात् विशेषण रूप अर्थ और विशेष्यरूप अर्थ का ज्ञान अपने स्वरूप का ज्ञापक नहीं है- क्योंकि स्व में स्व की क्रिया नहीं होती। जैसे कैसी भी नटक्रिया में चतुर मानव अपने कन्धे पर चढ़कर नृत्य नहीं कर सकता। इसलिए ज्ञान को अन्य ज्ञान के द्वारा वेद्य मानना इष्ट है।