________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 175 नाप्यनेक एव। किं तर्हि? स्यादेकः स्यादनेक इति। ततो जात्यंतरं तथा प्रतिभासनादन्यथा सकृदप्यसंवेदनात्, इति नात्मनोऽनंतपर्यायात्मता विरुद्धा चित्रज्ञानस्य चित्रतावत् / भ्रांतेयं चित्रता ज्ञाने निरंशेऽनादिवासना। सामर्थ्यादवभासेत स्वप्नादिज्ञानवद्यदि // 168 // तदा भ्रांतेतराकारमेकं ज्ञानं प्रसिद्ध्यति / भ्रांताकारस्य चाऽसत्त्वे चित्तं सदसदात्मकम् // 169 // तच्च प्रबाधतेऽवश्यं विरोधं पुंसि पर्ययैः। अक्रमैः क्रमवद्भिश प्रतीतत्वाविशेषतः // 170 // चित्राद्वैतमपि माभूत् संवेदनमात्रस्य सकलविकल्पशून्यस्योपगमादित्यपरः। तस्यापि तृतीय एकानेकात्मकत्व जाति के स्वभाव से प्रतिभासित हो रहा है। अन्यथा (अन्य प्रकार से) आत्मा का सकृत् (एक बार भी) अनुभव (वेदन) नहीं हो रहा है। इसलिए एक आत्मा के अनन्त पर्यायपना विरुद्ध नहीं है। जैसे बौद्ध दर्शन में एक चित्रज्ञान में पीतादि अनेक आकारों का प्रतिभासित होना विरुद्ध नहीं है। ___ इस प्रकार चित्रज्ञान का उदाहरण देकर आचार्यवर्य ने अनन्त सहभावी और क्रमभावी पर्यायों में रहने वाले एक अखण्ड आत्मद्रव्य की सिद्धि की है। (बौद्ध) निरंश ज्ञान में स्वप्नादि ज्ञान के समान अनादि वासना के सामर्थ्य से चित्रता प्रतिभासित होती है, वह भ्रान्ति है। इस प्रकार शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी बौद्धों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा है तो एक ज्ञान में असत्य आकारों के प्रतिभास करने की अपेक्षा भ्रान्तता और स्व को ग्रहण करने की अपेक्षा अभ्रान्तता हुई- अत: एक ही ज्ञान भ्रान्ताभ्रान्ताकार सिद्ध होता है॥१६८ // आत्मा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त है __तथा भ्रान्ताकार को सत्त्व स्वीकार करने पर एक ही चित्त (ज्ञान) सदसदात्मक सिद्ध होता है। और यह दृष्टान्त एक आत्मा में अनेक पर्यायों के साथ सदसदात्मक रूप होने में विरोध को बाधा दे रहा है। जैसे एक ज्ञान भ्रान्त रूप से असत् और अभ्रान्त रूप से सत् होने से सदसदात्मक है- वैसे आत्मा भी अक्रम और क्रम से रहने वाले गुण-पर्याय रूप प्रतीत हो रहा है। अर्थात् यह आत्मा अक्रम से होने वाले गुणों की अपेक्षा ध्रुव है- और क्रम से होने वाली नर-नारकादि पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद और विनाशशील है- अतः सदसदात्मक है। इसमें कोई विशेषता नहीं है। तथा चित्त सदसदात्मक दृष्टान्त से यह कथन अबाधित है॥१६९-१७०॥ - कोई (संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध-वैभाषिक) कहता है कि- ज्ञान चित्राद्वैत नहीं है क्योंकि सकल विकल्पो से शून्य संवेदन मात्र ज्ञान को हमने स्वीकार किया है। जैनाचार्य कहते हैं कि कल्पनाओं से रहित शुद्ध ज्ञान स्वीकार करने वाले के भी दर्शन में कल्पना क्या वस्तु है जिससे रहित शुद्ध ज्ञान है?