________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 192 जातितद्वतामात्मत्वजातिरात्मनि प्रत्ययविशेषमुपजनयति न पृथिव्यादिषु पृथिवीत्वादिजातयश तत्रैव प्रत्ययमुत्पादयंति नात्मनीति कोऽत्र नियमहेतुः? समवाय इति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः। सति प्रत्ययविशेष जातिविशेषस्य जातिमति समवायः सति च समवाये प्रत्ययविशेष इति / प्रत्यासत्तिविशेषादन्यत एव तत्प्रत्ययविशेष इति चेत् / स कोऽन्योऽन्यत्र कथंचित्तादात्म्यपरिणामादिति स एव प्रत्ययविशेषहेतुरेषितव्यः / तदभावे तदघटनाजातिविशेषस्य क्वचिदेव समवायासिद्धरात्मादिविभागानुपपत्तेरात्मन्येव ज्ञानं समवेतमिहेदमिति प्रत्ययं कुरुते न पुनः खादिप्विति प्रतिपत्तुमशक्तेर्न चैतन्ययोगादात्मनश्चेतनत्वं सिद्ध्येत् यतोऽसिद्धो हेतुः स्यात् / कराती है। तथा- पृथ्वीत्व आदि जाति पृथ्वी आदि में भी पृथ्वीत्व का ज्ञान कराती है- आत्मा में पृथ्वीत्व आदि के प्रत्यय विशेष को उत्पन्न नहीं कराती है- इस प्रकार के नियम का कारण क्या है? अर्थात् किस कारण से अपनी जाति का अपने से सर्वथा भिन्न स्वकीय जातिमान में ही समवाय सम्बन्ध होता है? अन्य में उस का समवाय सम्बन्ध नहीं होता है? अपनी जाति का अपने जातिमान में सम्बन्ध समवाय के कारण से होता है- अर्थात् उनमें सम्बन्ध कराने का कारण समवाय ही है। ऐसे समवाय को अपनी जाति के सम्बन्ध का कारण मानने पर अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। अर्थात् भिन्न स्थित समवाय सम्बन्ध के नियम कराने वाले ज्ञान की सिद्धि हो और समवाय सम्बन्ध की सिद्धि होने पर ज्ञान की सिद्धि हो। समवाय सम्बन्ध का नियम कराने वाले ज्ञान विशेष के होने पर जाति विशेष की जातिमान में समवाय की सिद्धि होती है और आत्मा और आत्मत्व का समवाय सम्बन्ध सिद्ध हो जाने पर ज्ञान विशेष की सिद्धि होती है- अतः अन्योऽन्याश्रय दोष होने से कार्य सिद्धि नहीं होती है। प्रत्यासत्ति विशेष से अन्य ही उसका प्रत्यय विशेष होता है। अर्थात् विशेष सम्बन्ध ही विशेष प्रत्यय का कारण होता है। तो वह विशिष्ट सम्बन्ध कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रूप परिणाम (पर्याय) से अतिरिक्त दूसरा कौन सा है। अतः गुण-गुणी, जाति-जातिमान में तादात्म्य सम्बन्ध ही प्रत्यय विशेष का हेतु समझना चाहिए। अर्थात् आत्मा का ज्ञान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है अतः उसी सम्बन्ध से 'आत्मा में ज्ञान है' ऐसा प्रत्यय विशेष होता है, समवाय सम्बन्ध से नहीं। उस तादात्म्य सम्बन्ध के अभाव में 'आत्मा में ज्ञान है' ऐसा प्रत्यय विशेष नहीं होता है। भिन्न स्थित जाति विशेष का किसी द्रव्य विशेष में ही समवाय सिद्ध नहीं होता है और जब गुण-गुणी में समवाय सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है तब 'यह आत्मा है, यह पृथ्वी है, यह आकाश है', इत्यादि रूप से द्रव्य के विभाग की भी सिद्धि नहीं हो सकती है। तथा आत्मा के विभाग की उत्पत्ति नहीं होने से आत्मा में ही ज्ञान समवाय सम्बन्ध से रहता है ऐसा, 'यह यहाँ है' इस प्रकार का ज्ञान आत्मा में ही ज्ञान के समवाय को सिद्ध करता है किन्तु फिर आकाश आदि में ज्ञान के समवाय को सिद्ध नहीं करे, यह भी नहीं समझा जा सकता है। अत: (नैयायिकों को) चैतन्य के सम्बन्ध से आत्मा में चेतनता सिद्ध नहीं हो सकती है और अचेतन के मोक्ष की अभिलाषा जागृत नहीं होती, यह हेतु असिद्ध होवे ऐसा नहीं है, अर्थात् यह हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं है।