________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१८१ 'व्यभिचारविनिर्मुक्ता कार्यकारणभावतः। पूर्वोत्तरक्षणानां हि संताननियमो मतः // 182 // स च बुद्धतरज्ञानक्षणानामपि विद्यते। नान्यथा सुगतस्य स्यात्सर्वज्ञत्वं कथंचन // 183 // संतानैक्यात्पूर्ववासना प्रत्यभिज्ञाया हेतुर्न संतानांतरवासनेति चेत् / कुत: संतानैक्यं? प्रत्यासत्तेशेत्, साप्यव्यभिचारी कार्यकारणभाव इष्टस्ततो बुद्धतरक्षणानामपि स्यात् / न च तेषां स व्यभिचरति बुद्धस्यासर्वज्ञत्वापत्तेः। एक काल में स्थित देखे जाते हैं। क्षेत्रप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासत्ति एक अखण्ड संतान की सिद्धि का कारण नहीं है- वैसे भाव प्रत्यासत्ति भी एकता का कारण नहीं है- क्योंकि जीव में ज्ञान, सुख आदि भाव एक स्थान में देखे जाते हैं और द्रव्य प्रत्यासत्ति को बौद्धों ने माना नहीं है। वह क्षेत्र, काल और भाव प्रत्यासत्ति संतानान्तर में भी है अत: उनमें भी एकपना सिद्ध हो जायेगा // 181 // कार्य-कारण भाव .. व्यभिचार दोष से रहित हो रहे कार्य-कारण भाव से ही पूर्वोत्तर क्षणों के सन्तान का नियम मानने पर तो वह निर्दोष कार्य-कारण रूप सम्बन्ध बुद्ध, सर्वज्ञ और देवदत्त आदि के ज्ञान क्षणों का भी विद्यमान है अर्थात् सौगत मतानुसार जो ज्ञाता के द्वारा ज्ञेय (जाना जाता) होता है वही पदार्थ ज्ञान का कारण है। अतः सौगत के ज्ञान रूप कार्य में जिनदत्त आदि भी कारण हैं। क्योंकि जिनदत्त आदि. सौगत के ज्ञान के विषय हैं। अन्यथा (यदि जिनदत्त आदि बुद्ध के ज्ञान के कारण नहीं हैं तो) सर्वज्ञ बुद्ध उनको जान नहीं सकते। अतः सुगत के सर्वज्ञत्व भी किसी प्रकार घटित नहीं हो सकता। अर्थात् इस प्रकार निर्दोष कार्य-कारण सम्बन्ध बुद्ध के ज्ञान में और जिनदत्त के ज्ञान में भी है। अत: उनमें भी एकसन्तानत्व का प्रसंग आयेगा // 182-183 / / संतान की एकता होने से पूर्व वासनाएँ प्रत्यभिज्ञान में कारण बनती हैं। सन्तानान्तर वासना (दूसरी, भिन्न प्राणी में स्थित वासनां) प्रत्यभिज्ञान का कारण नहीं बनती है। बौद्धों के ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि भिन्न संतानान्तर वासना में एकत्व क्यों नहीं है? संतान में ही एकत्व क्यों है? एक अन्वय रूप से अखण्ड द्रव्य तो बौद्ध मत में माना नहीं है। यदि किसी प्रत्यासत्ति (सम्बन्ध विशेष) से संतान में एकत्व मानते हो तो क्षैत्रिक प्रत्यासत्ति, कालिक प्रत्यासत्ति और भाव प्रत्यासत्ति के अतिरिक्त कार्य-कारण भाव को बौद्धों ने व्यभिचार रहित स्वीकार किया है। परन्तु उस सम्बन्ध से तो बुद्ध और संसारी जीवों के ज्ञान संतान में भी एकसंतानत्व बन जायेगा। क्योंकि बुद्ध ज्ञान और उसके ज्ञेयभूत संसारी जीवों के ज्ञानक्षणों में कार्यकारण भाव सम्बन्ध विद्यमान है। उनका वह सम्बन्ध व्यभिचार दोष से युक्त भी नहीं है। यदि संसारी जीवों के ज्ञान को बुद्ध ज्ञान का कारण नहीं मानते हैं तो बुद्ध के असर्वज्ञत्व की आपत्ति आती है अर्थात् बुद्ध सर्वज्ञ नहीं बन सकते। क्योंकि सुगत मतानुसार सारे संसारी