________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 186 तथा विवादापनस्तदुत्तरपर्याय उपादेयः कथंचित्पूर्वपर्यायानुयायिद्रव्यस्वभावत्वे सत्युत्तरपर्यायत्वात्। यस्तु नोपादेयः स नैवं यथा तत्पूर्वपर्यायः / तदुत्तरोत्तरपर्यायो वा पूर्वपर्यायानुयायिद्रव्यस्वभावो वा, तत्स्वात्मा वा, तथा चासाविति नियमात् / ततः सिद्धमुपादानमुपादेयश, अन्यथा तत्सिद्धरयोगात् / एकसंतानवर्तित्वात्तथा नियमकल्पने। पूर्वापरविदोळक्तमन्योन्याश्रयणं भवेत् // 189 / / कार्यकारणभावस्य नियमादेकसंततिः। ततस्तन्नियमश्च स्यान्नान्यातो विद्यते गतिः // 190 // विवाद को प्राप्त पूर्वकालीन विवक्षित पर्याय (यह पक्ष है) कथंचित् उपादान कारण है (यह साध्य है) क्योंकि किसी अपेक्षा से उपादेय पर्याय के अनुयायी द्रव्य का स्वभाव होने पर ही वह पूर्वकाल की पर्याय होती है। (यह हेतु है) परन्तु जो उपादान कारण नहीं है, वह तो इस प्रकार उपादेय के अनुयायी द्रव्य का स्वभाव होते हुए पूर्व पर्याय स्वरूप भी नहीं है। जैसे कि उससे भी उत्तर काल में होने वाली पर्याय (यह व्यतिरेक दृष्टान्त है) अर्थात् विवक्षित पर्याय के उपादान कारण भविष्य में होने वाली पर्याय नहीं हैं। अथवा पूर्व पर्याय से भी पहले काल में होने वाली चिरतर भूत पर्याय भी वर्तमान पर्याय का उपादान कारण नहीं है। अथवा स्वयं कार्य जैसे अपना उपादान कारण नहीं है, विवक्षित उपादेय पर्यायों में अन्वयरूप से नहीं रहने वाली द्रव्य स्वभाव रूप दूसरी आत्मा भी उपादान कारण नहीं है। तथा- इन्द्रियाँ, हेतु, शब्द आदि सहकारी कारण भी ज्ञानपर्याय के उपादान कारण नहीं हैं। अतः यह निश्चित है कि उत्तर पर्याय के अन्वित रहने वाले द्रव्य की पूर्वपर्याय कथंचित् उत्तर पर्याय की उपादान कारण है और उत्तर पर्याय उपादेय है। इसी उपादान-उपादेय भाव को पुष्ट करने के. लिए दूसरे अनुमान का प्रयोग करते हैं पूर्व पर्याय में कथंचित् अन्वय रखने वाले द्रव्य स्वभाव के होने पर होने वाली उत्तर पर्याय होने से विवाद को (विचारकाल में) प्राप्त उत्तर पर्याय उपादेय है। जो उपादेय नहीं है, वह इस प्रकार कथित हेतु से युक्त भी तो नहीं है। जैसे कि इससे भी पूर्वकाल में होने वाली पर्यायें उपादेय नहीं हैं। अथवा उत्तरोत्तर होने वाले भविष्य काल की पर्यायें भी उपादेयरूप नहीं हैं। अथवा- इन पूर्व पर्यायों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध से अन्वय नहीं रखने वाला दूसरा आत्मा वा पूर्व की सभी पर्यायों में अन्वय रखने वाला अकेला निजद्रव्य उपादेय नहीं है। तथा स्वयं उत्तर पर्याय भी अपना उपादेय नहीं है। अतः पूर्व पर्यायों में अन्वय रखने वाले द्रव्य की विवक्षित काल व्यवधान रहित उत्तर पर्याय ही पूर्व पर्याय का उपादेय है और पूर्व पर्याय उपादान है। द्रव्य प्रत्यासत्ति से अतिरिक्त अन्य कोई उपादानउपादेयभाव नहीं है। पूर्वकालवर्ती और उत्तरकालवर्ती ज्ञान पर्यायों में एक संतानपना होने से कार्य-कारण भाव के नियम की कल्पना करने पर तो स्पष्ट रूप से अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि पूर्वोत्तर ज्ञान पर्याय के कार्य-कारण भाव के नियम की सिद्धि होने पर तो उनमें एक संतति की सिद्धि होगी। और एक संतति के नियम की सिद्धि होने पर उनमें कार्य-कारण भाव सिद्ध होगा। अतः अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। इसलिए कार्य-कारण भाव के लिए द्रव्यप्रत्यासत्ति की ही शरण लेना अनिवार्य है। अन्यगति (अन्य उपाय) कार्य-कारण की सिद्धि का कारण नहीं है।।१८९-१९० //