________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 179 न स्यात् / ततो नाशेषस्वभावशून्यस्य संविन्मात्रस्य सिद्धिस्तद्विपरीतात्मप्रतीत्या बाधितत्वात् / नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते यथा। तथैव प्रत्यभिज्ञेयं पूर्वतद्वासनोद्भवा // 178 // तद्वासना च तत्पूर्ववासनाबलभाविनी। सापि तद्वदिति ज्ञानवादिनः संप्रचक्षते / 179 // तेषामप्यात्मनो लोपे संतानांतरवासना। समुद्भूता कुतो न स्यात्संज्ञाभेदाविशेषतः // 180 / / यथा नीलवासनया नीलविज्ञानं जन्यते तथा प्रत्यभिज्ञेयं तदेवेदं तादृशमेतदिति वा प्रतीयमाना प्रत्यभिज्ञानवासनयोद्भाव्यते न पुनर्बहिर्भूतेनैकत्वेन सादृश्येन वा येन तद्रग्राहिणी स्यात् / श्रेयस्कर न हो। अर्थात् अनेकपर्यायात्मक वस्तु की प्रत्यभिज्ञान के द्वारा सिद्धि होती है। इसलिए वस्तुस्वभाव रूप कल्पना का अभाव कहना उचित नहीं है। सम्पूर्ण स्वभावों से रहित शुद्ध संवेदन मात्र की सिद्धि नहीं होती है- क्योंकि उस संवेदन से सर्वथा विपरीत प्रतीति के द्वारा यह सकल स्वभावशून्यता बाधित होती है। अर्थात् अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रतीति में आ रही है। . जैसे नील की वासना से नील का ज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार पूर्व के संस्कारों से उत्पन्न हुई यह प्रत्यभिज्ञा-(प्रत्यभिज्ञान) है। और प्रत्यभिज्ञान की यह वासना पूर्व प्रत्यभिज्ञान की वासना के बल से उत्पन्न हुई है। वह पूर्व वासना भी उससे पूर्व होने वाली वासनाजन्य है। इस प्रकार अविद्या से उत्पन्न यह वासना धाराप्रवाह से आ रही है। इस प्रकार शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि उन बौद्धों के भी एक अन्वित आत्मा का सर्वथा लोप हो जाने पर संतानान्तर वासना कैसे उत्पन्न नहीं होगी। अर्थात् जब वासना का कोई एक अन्वित आधार नहीं है- वासना की आधारभूत अखण्ड वस्तु नहीं है तब वह वासना- दूसरे सन्तानान्तर में भी उत्पन्न हो सकती है। मेरे संस्कार से यज्ञदत्त में भी वासना उत्पन्न हो सकती है। क्योंकि दोनों सन्तानों का भिन्न प्रत्यभिज्ञान भी एक सा है कोई अन्तर नहीं है॥१७८-१७९-१८०॥ - जिस प्रकार नील वासना से नील का ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी प्रकार पूर्व संस्कार से 'यह वह है' इस प्रकार प्रतीति में आने वाला प्रत्यभिज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान की वासना से उत्पन्न होता है। अतः बहिरंग एकत्व या सादृश्य पदार्थ प्रत्यभिज्ञान के विषय नहीं हैं, जिससे कि यह प्रत्यभिज्ञान एकत्व और सादृश्य पदार्थ का ग्राहक हो सकता है- अर्थात् नहीं हो सकता। शंका- यह वासना किससे उत्पन्न होती है? उत्तर- यह वासना पूर्व वासना से उत्पन्न होती है- उसकी पूर्ववासना से पूर्व की वासना उत्पन्न होती है। क्योंकि वासना अनादि काल से धाराप्रवाह से चली आ रही है। अतः वासनाओं की उत्पत्ति का प्रश्न उठना अयुक्त (युक्तिसंगत नहीं) है। अन्यथा (यदि ऐसे प्रश्न करते रहेंगे तो) बहिरंग अर्थ में भी ऐसे प्रश्न संभव क्यों नहीं होंगे। अर्थात् हम ऐसे भी कह सकेंगे कि 'पुत्र की उत्पत्ति