________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 183 पूर्वापरसुगतचित्तानामव्यभिचारी कार्यकारणभावस्तस्मिन्सति तदेकसंतानत्वमिति / ततः पूर्वक्षणाभावेऽनुत्पत्तिरेवोत्तरक्षणस्याव्यभिचारी कार्यकारणभावोऽभ्युपगंतव्यः / स च स्वचित्तैरिव सकलसत्त्वचित्तैरपि सहास्ति सुगतचित्तस्येति कथं न तदेकसंतानतापत्तिः। स्वसंवेदनमेवास्य सर्वज्ञत्वं यदीष्यते। , संवेदनाद्वयास्थानाद्ता संतानसंकथा॥१८४॥ न ह्यद्वये संतानो नाम लक्षणभेदे तदुपपत्ते:, अन्यथा सकलव्यवहारलोपात् प्रमाणप्रमेयविचारानवतारात् प्रलापमात्रमवशिष्यते। अभ्युपगम्य वाऽव्यभिचारी कार्यकारणभावं सुगतेतरसंतानैकत्वापत्तेः संताननियमो निरस्यते। तत्त्वतस्तु स एव भेदवादिनोऽसंभवी केषांचिदेव क्षणानामव्यभिचारी कार्यकारणभाव इति निवेदयति ___ सुगत के पूर्व चित्तक्षणों का उत्तरक्षण चित्तों के साथ एकसंतानत्व है- अतः उनमें उपादान कारणत्व है, संसारी जीवों के चित्त के साथ एकसंतानत्व नहीं है, इसलिए उनमें सुगत के चित्त का उपादान कारणत्व नहीं है। ऐसा कहना भी ‘अन्योऽन्याश्रय दोष' से दूषित है। क्योंकि जब सुगत के चित्त में एकसन्तानत्व सिद्ध हो जाता है, तब तो सुगत के पूर्ववर्ती और उत्तरक्षणवर्ती चित्तों में व्यभिचार रहित कारण-कार्यभाव सिद्ध होता है, और पूर्वोत्तर क्षणों में निर्दोष कार्य-कारण भाव के सिद्ध हो जाने पर उनमें एकसंतानत्व सिद्ध होता है- अतः परस्पराश्रय दोष आता है। . इसलिए पूर्व क्षण के अभाव में उत्तर क्षण की उत्पत्ति नहीं हो सकती- इसी को निर्दोष कार्यकारण भाव समझना चाहिए। ऐसा मानने पर तो यह कार्य-कारण भाव सुगत के चित्तों का अपने पूर्वउत्तरभावी चित्तों के समान सारे संसारी जीवों के साथ भी है। अतः सुगत के और इतर जीवों के एकसंतान हो जाने का प्रसंग क्यों नहीं आयेगा? ___ (बौद्ध) सुगत अपनी संतानों को ही जानते हैं, अपना ही वेदन करते हैं, घट पट आदि को (या देवदत्त आदि के ज्ञानों को) नहीं जानते हैं। (जैनाचार्य) यदि इसको ही सर्वज्ञत्व स्वीकार करते हो- अर्थात् स्वसंवेदन करना ही सुगत की सर्वज्ञता है ऐसा मानते हो तो संवेदनाद्वैत (ज्ञान के अद्वैत की श्रद्धा) के स्थान से संतानकथा नहीं बन सकती अत: संतान की एकता से प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होने के लिए वासनाओं का नियम कैसे कर सकेंगे॥१८४॥ __क्योंकि अद्वैत में संतान की सिद्धि नहीं हो सकती। भिन्न-भिन्न लक्षण वाले अनेक संतानियों में ही संतान का कथन हो सकता है। अन्यथा यदि भिन्न-भिन्न संतान नहीं मानेंगे तो सर्व लोकव्यवहार का लोप हो जायेगा। अर्थात् स्वामी, भृत्य, माता-पिता आदि का व्यवहार भी नष्ट हो जायेगा। तथा अद्वैतवाद में प्रमाणप्रमेय के विचार का अवतार भी नहीं होगा अर्थात् प्रमाणप्रमेय का विचार भी नहीं रहेगा, केवल प्रलाप शेष रह जायेगा। वस्तु-व्यवस्था नहीं रहेगी। बौद्धों ने अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार रहित कार्यकारण भाव को स्वीकार करके भी बुद्धसंतान और इतर (संसारी जीवों की) संतान के एकत्व का प्रसंग आने से उस नियम का खण्डन