________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 170 शक्यं हि वक्तुं शष्कुलीभक्षणादौ सहभाविरूपादिज्ञानपंचकमिव नीलादिज्ञानं सकृदपि न चित्रमिति, सहभावित्वाविशेषात् / तदविशेषेऽपि पीतादिज्ञानं चित्रमभिन्नदेशत्वाच्चित्रपतंगादौ न पुना रूपादिज्ञानपंचकं कचिदिति न युक्तं वक्तुं, तस्याप्यभिन्नदेशत्वात् न हि देशभेदेन रूपादिज्ञानपञ्चकं सकृत् स्वस्मिन् वेद्यते, युगपज्ज्ञानोत्पत्तिवादिनस्तथानभ्युपगमात् / ननु चादेशत्वाच्चित्रचैतसिकानामभिन्नाभिन्नदेशत्वचिंता न श्रेयसीति चेत्, कथं भिन्नदेशत्वाच्चित्रपटीपीतादिज्ञानानां चित्रत्वाभावः साध्यते, संव्यवहारात्तेषां तत्र भिन्नदेशत्वसिद्धेः। तत्साधने तत एव शष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानानामभिन्नदेशत्वसिद्धेः, सहभावित्वसिद्धेश / तद्वत्सकृदपि पीतादिज्ञानं चित्रमेकं माभूत् / हम कह सकते हैं कि जैसे पूडी आदि खाते समय आदि प्रकरणों में (सहभावी) एक साथ होने वाले रूप, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द रूप पाँच ज्ञान परस्पर मिलकर एक चित्रज्ञान रूप नहीं बन जाते हैं, उसी प्रकार एक समय में होने वाले पीतादि आकार वाले ज्ञान भी मिलकर चित्रात्मक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि पूड़ी आदिक को खाते समय होने वाले पाँच ज्ञान में और चित्रपट में दिखने वाले ज्ञान में सहभावित्व की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है- दोनों समान हैं। चित्रपट के पीतादिक ज्ञान में और रूपरसादि ज्ञान में एक काल में होने की अपेक्षा अन्तर (विशेषता) न होते हुए भी अनेक रंग वाले पतंग आदि में या चित्रपट के नील आदि के ज्ञान को अभिन्न देश में होने के कारण बौद्ध चित्र ज्ञान कहते हैं, परन्तु रूपादि ज्ञानपञ्चक को कहीं पर भी चित्रज्ञान नहीं मानते हैं। उनका यह कथन युक्त नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार चित्रपटादिक के ज्ञान में अभिन्नदेशत्व है- उसी प्रकार पूड़ी खाते समय होने वाले रूपादि पंचक ज्ञान के भी अभिन्नदेशत्व है। रूप का ज्ञान किसी अन्य पदार्थ में हो और रसादिक का ज्ञान किसी भिन्न पदार्थ में हो ऐसा देशभेद से रूपादि पाँच का एक साथ आत्मा में वेदन नहीं होता है। जो एक समय में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति होना कहते हैं, उन्होंने उस प्रकार पाँच प्रकार के ज्ञानों को भित्रदेश में उत्पन्न होना स्वीकार नहीं किया है। अपितु बौद्ध दर्शन में एक साथ पाँच ज्ञान होना स्वीकार किया गया है। . बौद्ध कहते हैं कि विज्ञान स्वरूप आत्मा के चित्र-विचित्र ज्ञानों का भिन्नदेशत्व नहीं होने से अभिन्नदेशत्व की चिंता करना श्रेयस्कर नहीं है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहोगे तो बौद्धों ने चित्रपट के नील, पीत आदिक ज्ञानों को भिन्न देश में रहने के कारण चित्रत्व का अभाव क्यों सिद्ध किया है? जबकि बौद्ध मत में भिन्नदेशत्व माना ही नहीं गया है। यदि कहो कि संव्यवहार की अपेक्षा उन ज्ञानों में भिन्नदेशत्व की असिद्धि है अर्थात् व्यवहार में चित्रज्ञान में भिन्नदेशत्व नहीं है। इस प्रकार चित्रज्ञान में अभिनदेशत्व साधन करते हो (सिद्ध करते हो) तो उसी प्रकार पूड़ी आदि खाने पर होने वाले रूप आदि पाँच ज्ञानों में भी व्यवहार में अभिन्नदेशत्व सिद्ध है। और इस कारण उनमें सहभावित्व सिद्ध है। अतः पीतादि ज्ञान के समान रूपादिक पाँच ज्ञान में एक चित्रज्ञानत्व क्यों नहीं सिद्ध होता है, अपितु अवश्य सिद्ध होना चाहिए।