________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 168 यद्यनेकोऽपि विज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनः / स्यादेकः पुरुषोऽनंतपर्यायोऽपि तथा न किम्॥१६१ // क्रमभुवामात्मपर्यायाणामशक्यविवेचनत्वमसिद्धमिति मा निझैषीः। यस्मात् यथैकवेदनाकारा न शक्या वेदनांतरम्। नेतुं तथापि पर्याया जातुचित्पुरुषांतरम् // 162 // ननु चात्मपर्यायाणां भिन्नकालतया वित्तिरेव शक्यविवेचनत्वमिति चेत्तर्हि चित्रज्ञानाकाराणां भिन्नदेशतया वित्तिर्विवेचनमस्तीत्यशक्यविवेचनत्वं माभूत् / तथाहि भित्रकालतया वित्तिर्यदि तेषां विवेचनम्। भिन्नदेशतया वित्तिर्ज्ञानाकारेषु किं न तत् // 163 // शंका- चित्रज्ञान के आकार अनेक हैं फिर भी उनको पृथक् करना अशक्य होने से एक कह दिया जाता है। इसलिए अनेक आकारों के संयोग से चित्रज्ञान एक है, ऐसा बौद्ध का कथन अयुक्त क्यों है? अपितु युक्त है। समाधान- जैनाचार्य कहते हैं कि यदि विज्ञान के अनेक आकार अशक्य विवेचन (पृथक् करना शक्य न) होने से चित्रज्ञान एक है, ऐसा मानते हो तो फिर उसी प्रकार अशक्य विवेचन होने से अनन्त पर्यायों वाला आत्मा एक क्यों नहीं होगा // 161 // ____ क्रम-क्रम से होने वाली आत्मा की पर्यायों का अशक्य विवेचन असिद्ध है, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार एक वेदनाकार दूसरे वेदन (ज्ञान) में ले जाना शक्य नहीं है, उसी प्रकार आत्मा भी पुरुषान्तर के सुख-दुःख रूप पर्यायों का कभी वेदन नहीं कर सकता। अतः अशक्य विवेचन दोनों में समान है॥१६२॥ बौद्ध कहते हैं कि एक आत्मा की सुख-दु:ख आदि पर्यायों की भिन्न-भिन्न काल में वृत्ति होकर ज्ञान होना (प्रतीति होना) शक्य विवेचन है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों के इस कथन से तो 'चित्रज्ञान के आकारों का भी भिन्न-भिन्न देश में हुए रूप से वेदन होना' अशक्य विवेचन नहीं होगाअर्थात् शक्य विवेचन हो जायेगा। तथाहि- यदि भिन्न-भिन्न काल में वर्त रहे रूप से ज्ञप्ति होना ही आत्मा की पर्यायों का विवेचन (पृथक्) करना है, तो भिन्न-भिन्न देशों में रहने रूप से ज्ञान के आकारों की ज्ञप्ति होना शक्य विवेचन क्यों नहीं होगा // 163 // . 2 //