________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 53 नैवं सपक्षे तदसत्त्वानवधारणे व्याघातः कश्चिदिति। तत्र सन्नसन् वा साध्याविनाभावी हेतुरेव श्रावणत्वादिः सत्त्वादिवत् / तद्वन्मोक्षमार्गत्वादिति हेतु साधारणत्वादगमकः, साध्यस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकत्वस्याभावे ज्ञानमात्रात्मकत्वादौ सर्वथानुपपन्नत्वसाधनात्। ___ यदि पुनः सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन संशयितोऽसाधारण इति मतं तदा पक्षत्रयवृत्तितया निशितया संशयितया वानैकांतिकत्वं हेतोरित्यायातं / न च प्रकृतहेतोः सास्तीति गमकत्वमेव / विरुद्धतानेन प्रत्युक्ता विपक्षे बाधकस्य भावाच्च / ___ इस प्रकार साध्य के अभाव वाले विपक्ष में नहीं रहने वाला हेतु है ऐसा नियम मत करो; यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि विपक्ष में नहीं रहने का यदि नियम नहीं किया जायेगा तो “साध्याविनाभावि निश्चितो हेतुः" साध्य के बिना नहीं रहने रूप हेतु के लक्षण का विनाश होगा, अर्थात् “विपक्ष में हेतु नहीं रहना चाहिए" यह अवधारणा नहीं होगी तो हेतु के लक्षण का ही नाश हो जायेगा, परन्तु सपक्ष में हेतु के रहने की अवधारणा न करने से हेतु का कुछ भी बिगाड़ नहीं होता है। अतः सपक्ष में रहते हुए वा नही रहते हुए भी साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले श्रावणत्वादि हेतु जैसे सत्त्वादि हेतु के समान समीचीन हेतु हैं, उसी प्रकार सपक्ष में न रहने पर भी मोक्षमार्गत्वादि हेतु सत्त्वादि हेतु के समान सद्धेतु हैं। तथा असाधारण होने से मोक्षमार्गत्व हेतु साध्य का अगमक नहीं है. क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रात्मकत्व साध्य के अभाव में मोक्षमार्गत्व हेतु ज्ञानमात्रात्मक (सम्यग्दर्शन रहित ज्ञानादि) में सर्वथा नहीं रहता है। अर्थात् जहाँ इन तीनों की तादात्म्यक एकता नहीं है ऐसे अकेले ज्ञान या श्रद्धा भक्ति, कुज्ञान आदि में मोक्षमार्गत्व हेतु नहीं रहता है। - यदि पुनः सपक्ष और विपक्ष में हेतु के र रहने से संशय को प्राप्त हुआ असाधारण हेत्वाभास है ऐसा मानोगे तब तो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में निश्चित रूप से विद्यमान रहने वाला और संशय रूप से रहने वाला हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है, ऐसा सिद्ध होगा। परन्तु प्रकरण में प्राप्त हुए मोक्षमार्गत्व हेतु में पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में संशय रूप से रहनापन तथा तीनों पक्षों में निश्चित रूप से विद्यमानपन नहीं है इसलिए मोक्षमार्गत्व हेतु निर्दोष होने से अपने साध्य का ज्ञापक ही है, अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है। इस कथन से विरुद्ध हेत्वाभास का भी खण्डन कर दिया है, विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव होने से / अर्थात् मोक्षमार्गत्व हेतु विपक्ष सिर्फ ज्ञान, दर्शन, कुज्ञान आदि में नहीं रहता है। यह मोक्ष- मार्गत्व हेतु न विपक्ष में जाता है और न सपक्ष, विपक्ष दोनों में रहता है इसलिए न विरुद्ध है और न अनैकान्तिक' है। इसलिए विधि मुख्य से साध्य की सिद्धि होने से, इस प्रकार यह हेतु आनर्थक्य भी नहीं है। अर्थात् विपक्ष में हेतु के न रहने से साध्य की सिद्धि निषेधात्मक होती है और हेतु के द्वारा साध्य की सिद्धि विधिमुख से होती है अतः विपक्ष में हेतु के न रहने से साध्य की सिद्धि हो जाने पर भी हेतु का कथन करना व्यर्थ नहीं है। अन्यथा हेतु के गमकत्व ज्ञान में ही साध्य का ज्ञान हो जाता है, (परन्तु अविनाभावी हेतु का ज्ञान हो जाने पर भी बाद में व्याप्तिस्मरण, पक्षवृत्ति ज्ञान वा दृष्टान्त, समर्थन और उपनय के अनन्तर साध्य का निर्णय होता 1. विपक्ष में रहने वाले को विरुद्ध कहते हैं। 12. सपक्ष और विपक्ष में रहने वाले हेतु अनेकान्तिक हैं।