________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -54 . न चैवं हेतोरानर्थक्यं ततो विधिमुखेन साध्यस्य सिद्धेरन्यथा गमकत्ववित्तौ तदापत्तेस्ततः सूक्तं लैंगिकं वा प्रमाणमिदं सूत्रमविनाभाविलिंगात्साध्यस्य निर्णयादिति / प्रमाणत्वाच्च साक्षात्प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे सिद्धे प्रवृत्तमन्यथा प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। “नेदं सर्वज्ञे सिद्धे प्रवृत्तं तस्य ज्ञापकानुपलंभादभावसिद्धेरिति” परस्य महामोहविचेष्टितमाचष्टे; तत्र नास्त्येव सर्वज्ञो ज्ञापकानुपलंभनात्। व्योमांभोजवदित्येतत्तमस्तमविजूंभितम् // 8 // नास्ति सर्वज्ञो ज्ञापकानुलब्धेः खपुष्पवदिति ब्रुवन्नात्मनो महामोहविलासमावेदयति / यस्मादिदं ज्ञापकमुपलभ्यत इत्याह; अत: साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले मोक्षमार्गत्व हेतु के द्वारा रत्नत्रय की एकतारूप साध्य का निर्णय हो जाने से यह सूत्र तो लिङ्गजन्य अनुमान प्रमाण रूप है। अर्थात् 'यह सूत्र आगम और अनुमान प्रमाण से सिद्ध है' यह कहना ठीक ही है। इस प्रकार प्रथम सूत्र को आगमप्रमाण और अनुमानप्रमाण रूप सिद्ध करने का प्रकरण समाप्त हुआ। सर्वज्ञ सिद्धि के प्रमाण यह सूत्र प्रमाणभूत है, इसलिए साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वार्थों को जान लेने और सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने की सिद्धि हो जाने पर इस सूत्र की रचना हुई है, अर्थात् यह सर्वज्ञ, वीतराग, देव प्रणीत है, अन्यथा इसमें प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती / “यह सूत्र सर्वज्ञ की सिद्धि होने पर प्रवृत्त नहीं हुआ है क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान कराने वाला कोई प्रमाण नहीं है, अतः ज्ञापक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध है।" इस प्रकार सर्वज्ञ देव का अभाव मानने वाले मीमांसक का कथन अत्यन्त गाढ़ मोह से प्रेरित होकर चेष्टा करने को सूचित करता है। आचार्य कहते हैं “आकाश के कमल के समान सर्वज्ञ का ज्ञापक प्रमाण न होने से कोई भी सर्वज्ञ नहीं है।" इस प्रकार यह अयुक्त कथन वृद्धिंगत कुज्ञान और मिथ्यात्व नामक अन्धकार की कुचेष्टा है॥८॥ “सर्वज्ञ नहीं है (प्रतिज्ञा) क्योंकि उसको सिद्ध करने वाले ज्ञापक प्रमाण की अनुपलब्धि है, (हेतु) जैसे आकाश का फूल (अन्वय दृष्टान्त)" इस प्रकार कहने वाला अपने महामोह के विलास को प्रगट कर रहा है। क्योंकि सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले प्रमाण की उपलब्धि है। इसी बात को आचार्य कहते हैं