________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 142 - वा सूक्ष्मभूतविशेषस्य सजातीयत्वाच्चेतनोपादानत्वमिति, तत एव क्ष्मादीनामन्योऽन्यमुपादानत्वमस्तु निवारकाभावात् / तथा सति तेषां परस्परमनंतर्भावः तदंतांवो वा स्यात्? प्रथमपक्षे चैतन्यस्यापि भूतेष्वंतर्भावाभावात् तत्त्वांतरत्वसिद्धिः। द्वितीयपक्षे तत्त्वमेकं प्रसिद्धयेत् पृथिव्यादेः सर्वत्र तत्रैवानुप्रवेशनात् / तच्चायुक्तं क्रियाकारकघातित्वात् / तस्माद्रव्यांतरापोढस्वभावान्वयि कथ्यताम् / . उपादानं विकार्यस्य तत्त्वभेदोऽन्यथा कुतः // 120 // तत्त्वमुपादानत्वं विकार्यत्वं च तद्भेदो द्रव्यांतरव्यावृत्तेन स्वभावेनान्वयित्वे सत्युपादानोपादेययोर्युक्तो नान्यथातिप्रसंगादित्युपसंहर्तव्यं / तथा च सूक्ष्मस्य ___ आप द्वारा पृथ्वी आदिक के परस्पर उपादान-उपादेय भाव स्वीकार करने पर जैन पूछते हैं कि पृथ्वी आदि में उपादान-उपादेय भाव अन्तर्भाव का अभाव होकर होता है? या परस्पर अन्तर्भाव होकर होता है? प्रथम पक्ष में, यदि पृथ्वी आदि में परस्पर अन्तर्भाव नहीं होता है तब तो चैतन्य का भी सूक्ष्मभूतों में अन्तर्भाव नहीं होगा। और चैतन्य में सूक्ष्मभूत विशेषों के अन्तर्भाव का अभाव होने से तत्त्वान्तर (चार भूतों से भिन्न आत्मा) की सिद्धि हो जाती है। द्वितीय पक्ष में (पृथ्वी जलादि का परस्पर में अन्तर्भाव कर लेने पर) एक ही तत्त्व की सिद्धि होती है। क्योंकि पृथ्वी आदि चारों तत्त्वों का एक पुद्गल तत्त्व में ही प्रवेश हो जायेगा। सभी तत्त्वों का एक तत्त्व में प्रवेश करना युक्त नहीं है- क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादियों के समान सर्व पदार्थों का एक ब्रह्मतत्त्व में अन्तर्भाव करने में क्रिया-कारक भाव का घात हो जाता है। इसलिए स्वपर्याय वाले प्रकृत द्रव्य से अतिरिक्त, दूसरे द्रव्य से व्यावृत्त स्वभाव वाला, 'यह वही है' इस अन्वय ज्ञान का जो विषय है वही अन्वयी द्रव्य विकार को प्राप्त-पर्यायान्तर को प्राप्त होने वाले उस कार्य का उपादान कारण होता है। अन्यथा (यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकार से मानोगे तो) पृथ्वी आदि तत्त्वों में भेद कैसे होगा? अर्थात् अनादिकाल से अखण्ड पर्यायों को धारण करने वाला द्रव्य पूर्व पर्याय के द्वारा उपादान और उत्तर पर्याय से उपादेय होता है। दूसरा सजातीय या विजातीय द्रव्य उसकी पर्यायों का उपादान कारण नहीं है // 120 // उपादान कारण और उसका विकार-उपादेय कार्य दोनों एक ही तत्त्व हैं। उन उपादान और उपादेय में केवल कार्य-कारण रूप से भेद है। पृथक्-भिन्न तत्त्वों की अपेक्षा भेद नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही दूसरे द्रव्यों के स्वभावों से व्यावृत्त (पृथग्भूत) स्वकीय स्वभावों से अन्वित (संयुक्त) होने पर ही उपादान-उपादेय भाव युक्त (उचित) हैं। जो द्रव्यान्तर स्वभाव से व्यावृत्त नहीं है और अपने त्रिकालगोचर स्वभाव से अन्वित नहीं है उनमें भी उपादान, उपादेय भाव मान लेने पर अतिप्रसंग दोषं आयेगा। अर्थात् कोई भी किसी का उपादान बन जायेगा। अर्थात् गेहूँ से जौ के अंकुर उत्पन्न हो जायेंगे। इसलिए इसका उपसंहार करना चाहिए