________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१४० सूक्ष्मो भूतविशेषश्चदुपादानं चितो मतम् / स एवात्मास्तु चिजातिसमन्वितवपुर्यदि॥११६ // तद्विजातिः कथं नाम चिदुपादानकारणम् / भवतस्तेजसोऽभोवत्तथैवादृष्टकल्पना // 117 // सत्त्वादिना समानत्वाच्चिदुपादानकल्पने। मादीनामपि तत्केन निवार्येत परस्परम् // 118 // येन नैकं भवेत्तत्त्वं क्रियाकारकघाति ते। पृथिव्यादेरशेषस्य तत्रैवानुप्रवेशतः // 119 / / यदि सूक्ष्म भूतविशेष को चार्वाक आत्मा का उपादान मानते हैं तो उस सूक्ष्म भूत का शरीर अनादि अनन्त काल से अन्वित रूप चैतन्य शक्ति से सहित है तब तो वही आत्मा है॥११६॥ क्योंकि चार्वाक ने सूक्ष्म भूततत्त्व को चित् शक्ति से युक्त माना है अतः आत्मा कहना या चित् शक्ति युक्त कहना एक ही बात है। इसमें शब्दभेद अवश्य है परन्तु अर्थभेद नहीं है। यदि चार्वाक मत में अन्वित चित् शक्ति से (भिन्न) विजातीय सूक्ष्म भूत जड़ स्वरूप स्वीकार किया है- तो वह अचेतन सूक्ष्म भूत तत्त्व चेतन का उपादान कारण कैसे हो सकता है ; जैसे चार्वाक मत में अग्नि का उपादान जल नहीं हो सकता है। अतः विजातीय जड़ स्वरूप सूक्ष्म भूत तत्त्व आत्मा का उपादान कारण है, आपकी यह अदृष्ट कल्पना युक्ति से शून्य है॥११७॥ / यदि जड़ और चेतन को सत्त्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व और प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा समान मान कर (सत्त्वादि से सजातीय मानकर) सूक्ष्मभूत जड़ तत्त्व को आत्मा के उपादान कारण की कल्पना करोगे तो सत्त्व, द्रव्यत्व आदि की अपेक्षा पृथ्वी, जल आदि में भी सजातीयता है। अत: उनमें परस्पर उपादान उपादेय होने को कौन रोक सकता है अर्थात् कोई नहीं रोक सकता। और पृथ्वी आदि को परस्पर उपादान एवं उपादेय भाव मान लेने पर चार्वाक मत में एक भी स्वतंत्र तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकेगा; जो क्रियाकारक का घात करने वाला है। और ऐसा होने पर पृथ्वी आदि सम्पूर्ण तत्त्वों का एक सत्त्व तत्त्व में ही अनुप्रवेश (अन्तर्भाव) हो जायेगा।।११८-११९॥ भावार्थ- यदि सामान्य रूप से व्यापक सत्त्व, द्रव्यत्व आदि धर्मों से सजातीयत्व माना जाता है तो कार्य-कारणभाव, कर्ता-क्रियाभाव नहीं हो सकते। क्योंकि जैसे कार्य सत् है वैसे कारण भी सत् है अतः कौन किसका कारण और कौन किसका कार्य होगा। तब उपादान-उपादेय भाव व्यवस्था भी नहीं हो सकती। एक द्रव्य में ही उपादान-उपादेय भाव होता है, भिन्न-भिन्न द्रव्यों में (चैतन्य और भूतजड़ में) उपादान-उपादेय भाव नहीं है।