________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 153 तस्यासाधारणगुणत्वात्साधारणस्य तु स्पर्शमात्रस्य प्रत्येकं पृथिव्यादि भेदेष्वशेषेषूद्धवप्रसिद्धेः। परिणामविशेषाभावात् न तत्र चैतन्यस्योद्भूतिरिति चेत्, तर्हि परिणामविशिष्टभूतगुणो बोध इत्यसाधारण एवाभिमतः / तत्र चोक्तो दोषः। तत्परिजिहीर्षुणावश्यमदेहगुणो बोधोऽभ्युपगंतव्य : / इति न देहचैतन्ययोर्गुणगुणिभावेन भेदः साध्यते येन सिद्धसाध्यता स्यात्, ततोऽनवद्यं तयोर्भेदसाधनं / किं च। अहं सुखीति संवित्तौ सुखयोगो न विग्रहे। बहिःकरणवेद्यत्वप्रसंगानेंद्रियेष्वपि // 143 // कहते हैं कि ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि दीपक की प्रभा का वह उष्ण स्पर्श असाधारण गुण है। स्पर्श मात्र, साधारण स्पर्श गुण की सम्पूर्ण पृथ्वी आदि के प्रत्येक भेद-उपभेद में अभिव्यक्ति प्रसिद्ध है। अर्थात् पृथ्वी, जलादि की प्रत्येक अवस्था में सामान्य स्पर्श तो पाया ही जाता है, उष्ण-शीत आदि विशेष नहीं भी पाया जाना है। 'विशेष परिणाम (पर्याय) का अभाव होने से पृथक्-पृथक् पृथ्वी आदि में ज्ञान की अभिव्यक्ति नहीं होती है' चार्वाक के ऐसा कहने पर तो चैतन्य विशिष्ट परिणामों (पर्यायों) से युक्त भूतचतुष्टय का ही गुण है, यानी भूतचतुष्टय का असाधारण गुण चैतन्य को स्वीकार किया गया है, ऐसा सिद्ध होता है। और ऐसा मानने पर उपर्युक्त दोषों का अस्तित्व रहता है। अर्थात् बाह्येन्द्रिय का विषय होना, सदा उपलब्धि होना आदि दोषों का आविर्भाव होगा। अत: चैतन्य को शरीर का गुण सिद्ध नहीं कर सकते। इन सब दोषों को दूर करने की इच्छा करने वालों को ज्ञान को शरीर का गुण नहीं मानना चाहिए अपितु आत्मा स्वतंत्र तत्त्व है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। अतः शरीर और आत्मा में गुण-गुणी भाव के द्वारा भेद सिद्ध नहीं किया जा सकता है। अतः चार्वाक (जैनों को) सिद्धसाधन दोष नहीं दे सकते। इसलिए शरीर और आत्मा में भेद की सिद्धि निर्दोष है। अर्थात् आत्मा और शरीर में कार्य-कारणभाव, गुणगुणी भाव और परिणाम-परिणामी भाव की अपेक्षा भेद नहीं सिद्ध किया जा रहा है- अपितु तत्त्व की अपेक्षा भेद है। दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं। ... और भी, 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकार के समीचीन ज्ञान में सुख का सम्बन्ध शरीर में प्रतीत नहीं होता है। यदि 'मैं सुखी हूँ' यह संवेदन शरीर में होता है- ऐसा माना जायेगा तो बाह्य इन्द्रियों के द्वारा उसके वेदन (ज्ञान) का प्रसंग आयेगा। परन्तु सुख, दुःख का वेदन स्पर्शन आदि इन्द्रियों के द्वारा नहीं होता है। तथा इन्द्रियाँ सुख-दुःख की अधिकरण भी नहीं हैं। इन्द्रियों के अभाव में भी सुख दुःख का अनुभव होता है अतः चैतन्य इन्द्रियों का गुण नहीं है॥१४३॥