________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-१५२ प्रागपि पृथिव्यादिषु भावादन्यथात्यंतासतस्तत्रोपादानायोगाद्गगनांभोजवत्, साधारणस्तु स्यात्तद्दोषाभावादिति। तदसत्। साधारणगुणत्वे तु तस्य प्रत्येकमुद्भवः / पृथिव्यादिषु किं न स्यात् स्पर्शसामान्यवत्सदा // 142 // जीवत्कायाकारेण परिणतेषु पृथिव्यादिषु बोधस्योद्भवस्तथा तेनापरिणतेष्वपि स्यादेवेति सर्वदानुद्भवो न भवेत् स्पर्शसामान्यस्येव साधारणगुणत्वोपगमात् / प्रदीपप्रभायामुष्णस्पर्शस्यानुभूतस्य दर्शनात् साध्यशून्यं निदर्शनमिति न शंकनीयं, (यदि शरीर-रचना के पूर्व पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में चैतन्य शक्ति का अत्यन्त अभाव माना जाता है तो) आकाशकमल के समान अत्यन्त रूप से असत् (अविद्यमान) चैतन्य का उन पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय में उपादान कारण का अयोग (अभाव) होने से जीवित शरीर में भी उसका सत्त्व नहीं रहेगा अत: यदि चैतन्य को जीवित शरीर का साधारण गुण मानें तो इन दोषों का अभाव होता है, सद्भाव नहीं रहता है। जैनाचार्य इस कथन का खण्डन करके सत्य मत की स्थापना करते हैं जैनाचार्य कहते हैं कि उपर्युक्त कथन भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि यदि चैतन्य को शरीर का साधारण गुण मानते हैं और शरीर-रचना से पूर्व भूत चतुष्टय मेंचैतन्यशक्ति का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो उस भूतचतुष्टय के एक पृथ्वी आदि तत्त्व में स्पर्श के समान चैतन्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती? अर्थात् जब शरीर-रचना के पूर्व पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्त्व प्रत्येक में भिन्न-भिन्न शक्ति विद्यमान है तो अकेले पृथ्वी, जल आदि से चैतन्य शक्ति प्रगट हो जानी चाहिए; भूतचतुष्टय के संयोग से ही क्यों होती है? जैसे पृथ्वी में स्पर्श, जल में स्पर्श, तेज में स्पर्श, वायु में स्पर्श रहते हैं अर्थात् जैसा स्पर्श सामान्य सदा चारों भूतों में रहता है, वैसे आत्मा को भी चारों भूतों में सदा रहना चाहिए॥१४२॥ (अन्य मतों में जल में गन्ध का, अग्नि में रस और गंध का, वायु में रूप, रस और गन्ध इन तीनों का अभाव माना है। परन्तु स्पर्श तो सामान्य रूप से चारों में ही पाया जाता है। इसलिए यहाँ स्पर्श का उदाहरण दिया गया है।) जिस प्रकार जीवित शरीर के आकार से परिणत पृथ्वी आदिक में ज्ञान की अभिव्यक्ति मानते हो वैसे जीवित शरीराकार से अपरिणत घट आदि पृथ्वी में भी ज्ञान की अभिव्यक्ति सदा होनी चाहिएजैसे स्पर्शन सामान्य पृथ्वी की सभी अवस्थाओं में सदा अभिव्यक्त रहता है। जैसे स्पर्श भूतचतुष्टय का साधारण गुण है- वैसे ही तुम्हारे मतानुसार ज्ञान भी भूतचतुष्टय का साधारण गुण है। अतः भूतचतुष्टय में पृथक्-पृथक् बोध (ज्ञान) की अभिव्यक्ति सदा रहनी चाहिए, क्योंकि साधारण गुण सदा रहते हैं। (इस पर चार्वाक कहते हैं कि) प्रदीप की प्रभा में उष्ण स्पर्श अनभिव्यक्त (अप्रगट) देखा जाता (रहता) है- अतः स्पर्श सब में प्रगट रहता है- यह दृष्टान्त साध्यशून्य (साध्य से रहित) है। ग्रन्थकार