________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 150 सूक्ष्मत्वान्न क्वचिद्बाह्यकरणज्ञानगोचरः। . परमाणुवदेवायं बोध इत्यप्यसंगतम्॥१३९।। जीवत्कायेऽपि तत्सिद्धेरव्यवस्थानुषंगतः। स्वसंवेदनतस्तावद् बोधसिद्धौ न तद्गुणः // 140 // न क्वचिद्बोधो बाह्यकरणज्ञानविषयः प्रसज्यतां देहगुणत्वात् तस्य देहारंभकपरमाणुरूपादिभिर्व्यभिचारात्तेषां बहिःकरणत्वाविषयत्वेऽपि देहगुणत्वस्य भावात् / न च देहावयवगुणा देहगुणा न भवंति सर्वथावयवावयविनोर्भेदाभावादित्यसंगतं / जीवद्देहेऽपि तत्सिद्धर्व्यवस्थाभावानुषंगात् / तत्र तव्यवस्था हि इंद्रियज्ञानात्स्वसंवेदनाद्वा? न तावदाहाः पक्षो, (चार्वाक कहते हैं कि) अत्यन्त सूक्ष्म होने से जैसे परमाणु और परमाणु के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि बाह्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने से शरीर का गुण ज्ञान इन्द्रियगोचर नहीं होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि चैतन्य को परमाणु के समान अत्यन्त सूक्ष्म मानने पर जीवित शरीर में भी चैतन्य की सिद्धि करने की व्यवस्था नहीं होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् - जीवित शरीर में भी चैतन्य गुण की सिद्धि नहीं हो सकती। तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा चैतन्य की सिद्धि हो रही है, अत: चैतन्य शरीर से भिन्न तत्त्व है- वह शरीर का गुण सिद्ध नहीं होता है॥१३९-१४०॥ . क्वचित् ज्ञान बाह्यइन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय नहीं भी हो सकता है शरीर का गुण होने से। जोजो शरीर के गुण हैं वे सब बाह्य इन्द्रियज्ञान का विषय होते हैं। इस व्याप्ति से युक्त इस हेतु में शरीर के उत्पादक सूक्ष्म परमाणुओं के रूप, रस, गन्ध, वर्णादि गुणों के साथ व्यभिचार आता है। क्योंकि शरीर के प्रारंभक अणु के रूप रसादि शरीर के गुण होते हुए भी बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं हैं। अत: जो-जो शरीर के गुण होते हैं वे-वे इन्द्रियों के विषय होते हैं-यह व्याप्ति नहीं हैं। देह के उत्पादक, देह के अवयव रूप परमाणु के गुण शरीर के गुण नहीं हैं-ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि अवयव और अवयवी में भेद का अभाव है। जैनाचार्य कहते हैं- चार्वाक का यह कथन सुसंगत नहीं है। क्योंकि परमाणु सम्बन्धी रूपआदि के समान यदि चैतन्य को सूक्ष्म अवयवों का गुण मानोगे तो जीवित शरीर में भी ज्ञान को सिद्ध करने की व्यवस्था के अभाव का प्रसंग आयेगा क्योंकि परमाणु तो जीवित शरीर और मृत शरीर दोनों में इन्द्रियज्ञान के द्वारा नहीं जाने जाते हैं। उसे जीवित शरीर में उस ज्ञान (चैतन्य) की व्यवस्था इन्द्रियजन्य ज्ञान से होती है या स्वसंवेदन ज्ञान से? इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा जीवित शरीर में ज्ञान की व्यवस्था (निर्णय) होती है, यह प्रथम पक्ष स्वीकार करना तो उचित नहीं है- क्योंकि- “ज्ञान के (चैतन्य के) बाह्य इन्द्रियज्ञानगोचरता नहीं हैअर्थात् (चैतन्य) ज्ञान बाह्यइन्द्रियज्ञान का विषय नहीं है" यह चार्वाक का कथन हैं। ज्ञान (चैतन्य) स्वसंवेदन ज्ञान का विषय है- यह दूसरा पक्ष स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि चैतन्य ज्ञान देह का गुण नहीं है- क्योंकि जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा जानने योग्य है वह शरीर का गुण नहीं हो