________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 143 भूतविशेषस्याचेतनद्रव्यव्यावृत्तस्वभावेन चैतन्यमनुगच्छतस्तदुपादानत्वमिति वर्णादिरहितः स्वसंवेद्योऽनुमेयो वा स एवात्मा पंचमतत्त्वमनात्मज्ञस्य परलोकप्रतिषेधासंभवव्यवस्थापनपरतया प्रसिद्ध्यत्येवेति निगद्यते। सूक्ष्मो भूतविशेषश वर्णादिपरिवर्जितः। स्वसंवेदनवेद्योऽयमनुमेयोऽथवा यदि // 121 // सर्वथा पंचमं भूतमनात्मज्ञस्य सिद्ध्यति / स एव परलोकीति परलोकक्षतिः कथम् / / 122 // नेदृशो भूतविशेषश्चैतन्यस्योपादानं किंतु शरीरादय एव तेषां सहकारित्वेन कारकत्वपक्षानाश्रयादिति चेत्। आत्मा ही सूक्ष्मभूत विशेष है और वही ज्ञान का उपादान कारण है __तथा च - (विजातीय पदार्थ उपादान नहीं होता है ऐसा सिद्ध हो जाने पर) अचेतन जड़ द्रव्यों के स्वभावों से व्यावृत्त (पृथग्भूत) स्वभाव के द्वारा सर्वकाल चैतन्य का अनुगमन करने वाला आत्मा ही सूक्ष्मभूतविशेष है और वही ज्ञान का उपादान कारण है। अर्थात्-आत्मा ही सूक्ष्मभूतविशेष है और वही ज्ञान का उपादान कारण है। जो सूक्ष्मभूतविशेष आत्मा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, स्वसंवेद्य है। अर्थात् स्वयं स्व का अनुभव कर रहा है और दूसरों के द्वारा अनुमेय है। अर्थात् इस भौतिक शरीर में स्थित आत्मा, वचन, कायादि की चेष्टा के द्वारा अनुमानगम्य होने से अनुमेय है। इस प्रकार आत्मा को नहीं जानने वाले चार्वाक को पाँचवाँ आत्म तत्त्व स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि सूक्ष्मभूत तत्त्व को मान लेने पर परलोक के निषेध की संभावना न होने की व्यवस्था में चार्वाक स्वयं तत्परता से प्रसिद्ध ही है। ऐसा कहा जाता है कि - "चैतन्य शक्ति का धारक सूक्ष्मभूतविशेष वर्ण, रस, गन्ध आदि से रहित है स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा स्वसंवेद्य है। तथा यह अनुमान ज्ञान के द्वारा अनुमेय है"- इस प्रकार कथन करने वाले चार्वाक के दर्शन में चार भूतों से अतिरिक्त पाँचवाँ भूत आत्म तत्त्व सिद्ध हो ही जाता है। वह आत्मा ही परलोक को धारण करने वाला परलोकी है- अत: परलोक की क्षति कैसे हो सकती है? अर्थात् नहीं हो सकती॥१२१-१२२ / / चार्वाक कहते हैं कि रूप, रस आदि से रहित स्वसंवेद्य और दूसरों के द्वारा अनुमेय सूक्ष्मभूत विशेष को हम चैतन्य का उपादान कारण नहीं मानते हैं-किन्तु शरीर, इन्द्रिय और विषयों को ही चैतन्य के उपादान कारण मानते हैं। हमारा जो पक्ष था कि चैतन्य के सूक्ष्मभूत उपादान कारण हैं और शरीर, इन्द्रियाँ तथा विषय सहकारी कारण होकर कारक हैं तो अब इस पक्ष का हम आश्रय नहीं लेते हैं। यानी शरीरादिक को निमित्त कारण न मानकर उनको ही चैतन्य का उपादान कारण मानते हैं। चार्वाक के ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि यदि शरीर आदि ही आत्मा के उपादान हेतु माने जायेंगे, तब तो विज्ञान के भाव-भावित्व का प्रसंग आयेगा। अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और विषयों के होने पर ज्ञान होगा और इनके अभाव में ज्ञान नहीं होगा। परन्तु ऐसा शरीर के साथ ज्ञान का अन्वय नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों के व्यापार और पदार्थ के नहीं होने पर भी विकल्प ज्ञान सम्भव है। अर्थात् इन्द्रियों के व्यापार के बिना भी अनेक मानसिक विकल्प उठते रहते हैं। अत: व्यतिरेक व्यभिचार होने से इस चैतन्य के वे शरीर आदिक उपादान कारण नहीं हो सकते हैं।