________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 145 तद्विशिष्टविवर्तस्यापायाच्वेत्स क इष्यते। भूतव्यक्त्यन्तरासंगः पिठिरादावपीक्ष्यते॥१२९।। कालपर्युषितत्वं चेपिष्टादिवदुपेयते। तत्किं तत्र न संभाव्यं येन नातिप्रसज्यते॥१३०॥ भूतानि कतिचित्किंचित्कर्तुं शक्तानि केनचित्। परिणामविशेषेण दृष्टानीति मतं यदि॥१३१॥ तदा देहेन्द्रियादीनि चिद्विशिष्टानि कानिचित् / चिद्विवर्तसमुद्भुतौ संतु शक्तानि सर्वदा // 132 // यदि दूसरे भूत व्यक्तियों के संयोग से विशिष्ट पर्याय उत्पन्न होती है, ऐसा स्वीकार करते हो तो पिठिर आदि (बर्तन में स्थित अग्नि में पकते हुए आटा दाल आदि) में भी वह विशिष्ट परिणति देखी जाती है अतः वहाँ चैतन्य उत्पन्न हो जाना चाहिए। - यदि कहो कि महुआ आदि के समान कुछ समय तक गलना-सड़ना रूप विशिष्ट परिणाम होने पर चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है, तो बर्तन में स्थित घोल किये हुए आटे आदि में विशिष्ट वायु आदि का संयोग है- और वह बहुत काल तक स्थित भी है, उसमें चैतन्य शक्ति क्यों नहीं सम्भव है। अर्थात् जलेबी आदि के लिये घोले हुए आटे में चैतन्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है, जिससे अतिप्रसंग नहीं होता है। अर्थात् वहाँ. चैतन्य की उत्पत्ति का प्रसंग क्यों नहीं आता है॥१२९-१३०॥ चार्वाक कहता है कि-"जैसे वर्षा ऋतु के जल और मिट्टी का संयोग पाकर किसी स्थान में मेंढक आदि असंख्यात जीव उत्पन्न हो जाते हैं, सब स्थानों और सर्व ऋतुओं में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार कितने ही, और कोई-कोई विशिष्ट परिणाम वाले भूतचतुष्टय किसी विशेष परिणाम से किन्हीं विशेष जीवों को उत्पन्न करने में समर्थ देखे जाते हैं। अर्थात्- गर्भ या गोबर आदि विशिष्ट स्थानों में मिश्रित भूतचतुष्टय चैतन्य को उत्पन्न करते हैं, थाली आदि में नहीं // 131 // ... इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं- कि ऐसा मानने पर तो चेतन आत्मा से संयुक्त हो रहे कोई विशिष्ट शरीर, इन्द्रियादिक ही उस गर्भ आदिक के समय चैतन्य पर्याय की उत्पत्ति में सर्वदा समर्थ होते हैं। ऐसा स्वीकार करना चाहिए। अर्थात दृष्टिगोचर चैतन्य रूप उपादान कारण से तथा शरीर, इन्द्रियाँ, कर्मों का क्षयोपशम आदि निमित्त कारणों को पाकर नर, नारक आदि जीव की पर्यायें उत्पन्न होती हैं, नूतन जीव उत्पन्न नहीं होता है। जीव का शरीर भूतचतुष्टय से उत्पन्न हो सकता है, चैतन्य आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती हैं॥१३२॥