________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-११६ व्यभिचारी हेतुरिति चेत् / न / सवासनग्रहणात् / तस्य हि वासनाप्रबोधे सति स्वकार्यकारित्वमन्यथातिप्रसंगात् / सुगतस्य विवक्षा वासनाप्रबोधोपगमे तु विवक्षोत्पत्तिप्रसक्तेः कुतोऽत्यंत कल्पनाविलयः? स्यान्मतं। “सुगतवाचो विवक्षापूर्विका वाक्त्वादस्मदादिवाग्वत् / तद्विवक्षा च बुद्धदशायां न संभवति, तत्संभवे बुद्धत्वविरोधात् / सामर्थ्यात् पूर्वकालभाविनी विवक्षा वाग्वृत्तिकारणं गोत्रस्खलनवदिति / तदयुक्तम् / गोत्रस्खलनस्य तत्कालविवक्षापूर्वकत्वप्रतीतेः, तद्धि पद्मावतीतिवचनकाले वासवदत्तेतिवचनं / न च वासवदत्ताविवक्षा तद्वचनहेतुरन्यदा च तद्वचनमिति युक्तं। प्रथमं पद्मावतीविवक्षा हि वत्सराजस्य .. जाता तदनंतरमाश्वेवात्यंताभ्यासवशाद्वासवदत्ताविवक्षा तद्वचनं चेति सर्वजनप्रसिद्धं / कथमन्यथान्यमनस्केन अथवा, यदि बुद्ध के पूर्वकालीन विवक्षा नामक कल्पनाओं की वासना का उत्पन्न होना मानेंगे तो सुगत के विवक्षा स्वरूप विकल्प ज्ञानों की उत्पत्ति का प्रसंग आयेगा। अतः सम्पूर्ण रूप से कल्पनाओं का नाश होना सुगत के कैसे सिद्ध होगा? अर्थात् कल्पनाओं का अत्यंत नाश सुगत के कैसे भी सिद्ध नहीं हो सकता। ____सुगत के वचन, बोलने की इच्छापूर्वक ही होते हैं क्योंकि वे वचन हैं; जैसे हमारे वचन इच्छापूर्वक बोले जाते हैं। परन्तु बुद्ध अवस्था में विचारपूर्वक (इच्छापूर्वक) बोलना सम्भव नहीं है। यदि बुद्ध अवस्था में कल्पनाज्ञानों की सम्भावना होगी तो बुद्धत्व का विरोध आयेगा। क्योंकि बुद्ध कल्पनाजाल से रहित निर्विकल्प होता है, अतः कल्पनाज्ञान के सद्भाव में बुद्ध अवस्था कैसे रह सकती है? (बौद्ध कहते हैं-) परन्तु जैसे गोत्रस्खलन' में इच्छा के बिना भी मुख से कुछ शब्द निकल जाते हैं, उसी प्रकार कार्यकारण शक्ति के सामर्थ्य से पूर्वकालीन विवक्षा सुगत की वचनप्रवृत्ति का कारण है। यद्यपि इस समय बुद्ध के बोलने की इच्छा नहीं हैफिर भी पूर्व संस्कार के कारण वचन में प्रवृत्ति होती है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्ध का कथन करना, पूर्वकालीन विवक्षा के संस्कार से सुगत के वचनप्रवृत्ति का समर्थन करना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि गोत्रस्खलन में होने वाली वचनप्रवृत्ति में उसी काल में व्यवधान रहित पूर्व विवक्षा को कारणपना प्रतीत हो रहा है। अर्थात् गोत्रस्खलन में पूर्वविवक्षा वर्तमान काल में प्रतीत हो रही है। क्योंकि 'पद्मावती' इस शब्द को बोलने की अभिलाषा में 'वासवदत्ता' यह शब्द गोत्रस्खलन में निकलता है। इसमें वासवदत्ता की विवक्षा उस वचन की हेतु है ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि वत्स राजा के पूर्व में पद्मावती कहने की इच्छा थी परन्तु उसके बाद पूर्व अभ्यास के कारण शीघ्र ही 'वासवदत्ता' शब्द मुख से निकल गया। यह सर्वजनप्रसिद्ध है। अन्यथा(ऐसा न मानकर अन्य प्रकार से माना जायेगा तो) यह निर्णय कैसे होता है कि "अन्यमनस्क (चित्तस्थिर न होने से) मैंने प्रस्ताव प्राप्त प्रकृत विषय का उल्लंघन करके अन्य (दूसरी) बात कह दी। (बोलना कुछ और चाहता था, परन्तु ध्यान नहीं रहने से मुख से कुछ दूसरा शब्द निकल गया है) इच्छा के बिना इस प्रकार कथन का ज्ञान कैसे हो सकेगा। (अत: सिद्ध है कि जो शब्द निकलते हैं उनकी इच्छा शीघ्र ही अव्यवहित पूर्वकाल में 1. कभी-कभी बोलना कुछ और चाहते हैं, पर मुख से शब्द दूसरे निकल जाते हैं, उसको गोत्रस्खलन कहते हैं। जैसे नाम लेना चाहते थे जिनदत्त का और मुख से निकल गया देवदत्त /