________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 136 कदाचित्कार्यत्वोपगमे वाभिव्यक्तिवादविरोधात्, तदभिव्यक्तिकाल एतस्याभिव्यंग्यत्वं नान्यथेत्यसिद्धं सर्वदाभिव्यंग्यत्वं न मंतव्यं, अभिव्यक्तियोग्यत्वस्य हेतुत्वात् / तत एव न परस्य घटादिभिरनैकांतिकं तेषां कार्यत्वे सत्यभिव्यंग्यत्वस्याशाश्वतिकत्वात् / स्याद्वादिनां तु सर्वस्य कथंचिन्नित्यत्वान्न केनचिद्व्यभिचारः। कुंभादिभिरनेकांतो न स्यादेव कथंचन। तेषां मतं गुणत्वेन परैरिष्टः प्रतीतितः॥११२॥ द्वारा प्रगट करने योग्य है, क्योंकि वह (पृथ्वी आदि व्यंजकों का) कार्य नहीं माना गया है। यदि चार्वाक कदाचित् (किसी भी समय) आत्मा को पृथ्वी आदि कारणों से निर्मित कार्य मानते हैं तो चैतन्य को अभिव्यक्ति कहने का विरोध आता है। अर्थात् जो कार्य होता है, वह अभिव्यक्त नहीं होता है, वह कारणों से उत्पन्न होता है। चार्वाक उस अभिव्यक्ति के (गर्भ की प्रथम अवस्था के) काल में ही इस चैतन्य को प्रगट होने योग्य स्वीकार करते हैं। अन्य प्रकार से दूसरे समयों में चैतन्य को अभिव्यंग्य नहीं मानते हैं। भावार्थजैसे आटे और महुआ में पहले से ही मादक शक्ति नहीं है परन्तु उन दोनों के संयोग से मादक शक्ति नवीन प्रकट होती है, उसी प्रकार पूर्व में आत्मा नहीं थी- किन्तु पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से नवीन उत्पन्न होती है। अत: चैतन्य को नित्य सिद्ध करने के लिए स्याद्वाद मत में दिया गया सर्वदा अभिव्यंग्यत्व (सर्वदा प्रगट रहता है यह हेतु) पक्ष में नहीं रहने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है। जैनाचार्य कहते हैं कि चार्वाकों को ऐसा नहीं मानना (समझना) चाहिए। क्योंकि चैतन्य में प्रगट होने की योग्यता सर्व कालों में विद्यमान है अतः स्याद्वाद मत में चैतन्य में सर्वदा प्रगट होने की योग्यता को हेतुपना स्वीकार किया गया है। इसलिए इस (शाश्वत अभिव्यंग्यत्व) हेतु में चार्वाक के कथनानुसार घटादिक के द्वारा अनैकान्तिक हेत्वाभास दोष नहीं आ सकता है। क्योंकि घटादिक के कार्यपना होते हुए प्रगट होनापन सदा विद्यमान नहीं है। अर्थात् घटादिक कार्य है अतः शिवक, स्थास, कोष, कुशूल इन अवस्थाओं में ही घट के प्रगट होने की योग्यता है। उससे पहले और पीछे नहीं है। घटत्व शक्ति शाश्वत विद्यमान नहीं है। किन्तु चैतन्य (ज्ञान) सदा ही प्रगट होने की शक्ति से सम्पन्न है। अत: चैतन्य नित्य है, घटादिक नित्य नहीं हैं। अथवा स्याद्वाद मत में कथंचित् (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा) सर्व पदार्थ नित्य माने गये हैं। अत: किसी से भी व्यभिचार नहीं हो सकता है। क्योंकि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्याद्वाद मत में घटादिक पदार्थों को भी नित्य माना गया है। इस प्रकार कथंचन घटादिक के द्वारा भी शाश्वत्व्यंग्यत्व हेतु में अनैकान्तिक हेत्वाभास दोष नहीं आता है। क्योंकि उन स्याद्वादियों के मन्तव्य को प्रतीति के अनुसार गौण रूप से पर (दूसरे) वादियों ने भी इष्ट-स्वीकार किया है॥११२ //