________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१३४ तदनैकांतिकं, नापि मारणशक्त्यात्मकविषद्रव्येण सकृत्तादृशा शक्तिशक्तिमतोः कथंचिद्भेदप्रसिद्धः। सर्वथा भेदस्य देहचैतन्ययोरप्यसाधनत्वात्। तथा साधने सद्दव्यत्वादिनापि भेदप्रसक्ते!भयोरपि सत्त्वद्रव्यत्वादयोरव्यवतिष्ठेरन् / यथा हि देहस्य चैतन्यात् सत्त्वेन व्यावृत्तौ सत्त्वविरोधस्तथा चैतन्यस्यापि देहात्। एवं द्रव्यत्वादिभिया॑वृत्तौ चोद्यं / भित्रप्रमाणवेद्यत्वादेवेत्यवधारणाद्वा न इसीलिए प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा परिच्छेद्य (जानने योग्य) अग्नि के द्वारा एक ही मनुष्य के अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं होता है। अर्थात् एक ही देवदत्त प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष अग्नि को जानता है और परोक्ष अग्नि धूमादिक को अनुमान के द्वारा जानता है। तथा विष द्रव्य के साथ भी व्यभिचार नहीं आता है। क्योंकि विषद्रव्य में भी एक साथ मारक और प्राणदायक शक्तियाँ विद्यमान हैं। अतः शक्ति और शक्तिमान में कंथचित् भेद सिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा में भी ज्ञाता और ज्ञेय दोनों शक्तियाँ हैं। ज्ञाता शक्ति से पदार्थों . को जानने वाला है और ज्ञेय शक्ति की अपेक्षा स्वसंवेद्य और अनुमेय है। - जैन लोग अनुमान के द्वारा शरीर और आत्मा में सर्वथा भेद सिद्ध नहीं करते हैं, अपितु कथंचित् भेद सिद्ध करते हैं। क्योंकि आत्मा और शरीर में सर्वथा भेद सिद्ध करने पर सत्त्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व और प्रमेयत्व . आदि रूप से भी भेद करने का प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर दोनों में भी सत्त्व, द्रव्यत्व आदि की व्यवस्था नहीं बनेगी। . जैसे-सद् रूप से ही शरीर को आत्मा से भिन्न मानेंगे तो शरीर की सत् रूप से व्यावृत्ति होने पर सत्त्व का विरोध आयेगा अर्थात् शरीर सत्त्व रूप नहीं रहेगा, आकाशपुष्प के समान असत् हो जायेगा। उसी प्रकार सद्रूप से आत्मा को शरीर से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो आत्मा असत् हो जायेगा अर्थात् आत्मा का अस्तित्व भी नहीं रहेगा। इस प्रकार द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा से भी आत्मा और शरीर का सर्वथा भेद मान लेने पर दोनों के ही अद्रव्यत्व, अप्रमेयत्व आदि का प्रसंग आयेगा। ऐसा जानना चाहिए। अतः आत्मा और शरीर में कथंचित् भेद है, सर्वथा भेद नहीं है। __ अथवा 'भिन्न प्रमाण के द्वारा ही वेद्य है' ऐसी अवधारणा करने पर हेतु की किसी के द्वारा व्यभिचार हो जाने की आपत्ति संभव नहीं है जिससे कि एक पुरुष के द्वारा इत्यादि विशेषणों का प्रयोग किया जाये। अर्थात् 'जो भिन्न प्रमाणों से ही जानने योग्य है, वह अवश्य ही भिन्न है' ऐसी व्याप्ति बना लेने पर एक पुरुष के द्वारा एक समय में जो भिन्न प्रमाणों से जानने योग्य है- वह भिन्न है- इस प्रकार के विशेषणों के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती। इनका प्रयोजन ‘एवकार' से सध जाता है। आपको इन भिन्न प्रमाणों के द्वारा जानने योग्य हेतु का अभिन्न एकरूप माने गये विपक्ष में न रहने रूप व्यावृत्ति संदेहप्राप्त है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कुत्रचित् (कहीं भी) अभिन्न रूप एक पदार्थ का या एक स्वभाव में भिन्न प्रमाणों के द्वारा वेद्यत्व की असंभवता है- अर्थात् अभिन्न रूप एक पदार्थ का या एक स्वभाव में भिन्न प्रमाणों के द्वारा जानने योग्यपन नहीं है। तथा भिन्न प्रमाणों से जानने योग्य वैसे सम्पूर्ण पदार्थ तादात्म्यसम्बन्ध से अनेक स्वभाव युक्त सिद्ध हैं। अन्यथा (तादात्म्य सम्बन्ध से अनेक स्वभाव रूप न मानकर पदार्थ को अन्यथा माना जायेगा तो) कोई भी पदार्थ