________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१२० तस्यादृश्यस्य तद्धेतुभावनिचित्यसंभवे। सुगतः किं न दृश्यस्ते यैनासौ तन्निबंधनम् // 16 // ततोऽनावास एवैतद्देशनासु परीक्षया। सतां प्रवर्तमानानामिति कैश्चित्सुभाषितम् // 17 // तदेवं न सुगतो मार्गस्योपदेष्टा प्रमाणत्वाभावादीश्वरवत् / न प्रमाणमसौ तत्त्वपरिच्छेदकत्वाभावात्तद्वत् / न तत्त्वपरिच्छेदकोऽसौ सर्वथार्थक्रियारहितत्त्वात्तद्वदेव / न वार्थक्रियारहितत्वमसिद्धं क्षणिकस्य क्रमाक्रमाभ्यां तद्विरोधानित्यवत् / स्यान्मतं / संवृत्त्यैव सुगतः शास्ता मार्गस्येष्यते न वस्तुतशित्राद्वैतस्य सुगतत्वादिति। तदसत्। सुतरां तस्य शास्तृत्वायोगात्। तथाहि बौद्ध कहते हैं कि-"वे पिशाच आदि अदृश्य हैं, दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, अतः केवल भाव से उन पिशाच आदिकों के उपदेशकारणता का निश्चय करना संभव नहीं है"। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि- “सुगत क्या देखने में आता है, जिससे सुगत को मोक्षमार्ग के उपदेश का कारण मानते हो" अर्थात् पिशाच आदि के समान दृष्टिगोचर नहीं होने से सुगत भी देशना का कारण नहीं हो सकता है।९६॥ इससे यह निश्चय होता है कि “परीक्षा करके प्रवृत्ति करने वाले सज्जनों को बुद्ध के इन उपदेशों में विश्वास नहीं करना चाहिए। इस प्रकार (बौद्धों के प्रति) किसी के द्वारा कथित यह सुभाषित है (शोभनीय कथन है)॥९७॥ सुगत तत्त्वों का यथार्थ ज्ञाता नहीं है अत: वह मोक्षमार्ग का उपदेष्टा भी नहीं है। जगत् सृष्टिकर्ता ईश्वर की सिद्धि के समान प्रमाण का अभाव होने से सुगत मोक्षमार्ग का उपदेष्टा सिद्ध नहीं हो सकता। इस अनुमान में प्रयुक्त प्रमाणत्वाभाव हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि तत्त्वों के परिच्छेदक (समीचीन ज्ञान कराने) का अभाव होने से सुगत प्रामाणिक नहीं है। जैसे तत्त्वों का समीचीन ज्ञान कराने वाला नहीं होने से ईश्वर प्रामाणिक नहीं है। सुगत तत्त्वों को यथार्थ रूप से जानने वाला नहीं है, क्योंकि सुगत सर्वथा जानने रूप अर्थक्रियाओं से रहित है। जैसे कि नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत तत्त्वों को यथार्थ जानने वाला ईश्वर नहीं है। तथा इस अनुमान में दिया गया अर्थक्रियारहितत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि सर्वथा क्षणिक पदार्थ में क्रम और युगपत् अर्थक्रियाओं के होने का वैसे ही विरोध है, जैसे सर्वथा नित्य पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं होती है। पूर्व स्वभाव का त्याग, उत्तर स्वभाव का ग्रहण और द्रव्य रूप से या स्थूल पर्याय से स्थिर रहे बिना अर्थक्रिया नहीं हो सकती। चित्राद्वैत (चित्र विचित्र ज्ञान का अद्वैत मानने वाला) बौद्ध कहता है कि हमने संवृत्ति (व्यवहार) से ही सुगत को मोक्षमार्ग का उपदेष्टा स्वीकार किया है, परमार्थ से नहीं, क्योंकि परमार्थ से सारा संसार विचित्र ज्ञानस्वरूप है तथा चित्राद्वैत के ही सुगतपना है और बुद्ध चित्राद्वैत स्वरूप हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चित्राद्वैत का कहना असत् है (प्रशंसनीय नहीं है) क्योंकि प्रयत्न के बिना स्वयमेव चित्राद्वैत के शास्तापने का अयोग है। अर्थात् चित्राद्वैत सुगत मोक्षमार्ग का उपदेष्टा नहीं हो सकता। वही कहते हैं१. नाना आकार वाले ज्ञान को ही मानना और किसी वस्तु को नहीं मानना चित्राद्वैतवाद है। ग्राह्य, ग्राहक भाव से रहित शुद्ध ज्ञान का ही प्रकाश मानने वाले शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी हैं। ज्ञान, ज्ञेय आदि कुछ भी नहीं है, सभी का अभाव मानने वाला शन्याद्वैतवादी है।