________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-१२४ अन्यथा द्वैतप्रसक्तेः। कल्पितादनुमानादेः तत्साधने न तात्त्विकी सिद्धिर्यतो निरोधोत्पत्तिबद्धमोचकबंधमुक्तिरहितं प्रतिभासमात्रमास्थाय मार्गदेशना दूरोत्सारितैवेत्यनुमन्यते / तदेवं तत्त्वार्थशासनारंभेऽर्हन्नेव स्याद्वादनायकः स्तुतियोग्योऽस्तदोषत्वात् / अस्तदोषोऽसौ सर्ववित्त्वात् / सर्वविदसौ प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकत्वात् / ये तु कपिलादयोऽसर्वज्ञास्ते न . प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकास्तत एवासर्वज्ञत्वान्नास्तदोषा इति न परीक्षकजनस्तवनयोग्यास्तेषां सर्वथेहितहीनमार्गत्वात् सर्वथैकांतवादिनां मोक्षमार्गव्यवस्थानुपपत्तेरित्युपसंह्रियते॥ ततः प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकः सर्वविदस्तदोषः। स्याद्वादभागेव नुतेरिहार्हः सोऽर्हन्परे नेहितहीनमार्गाः॥१०१॥ इति शास्त्रादौ स्तोतव्यविशेषसिद्धिः। कल्पित अनुमान आदि के द्वारा परम ब्रह्म की सिद्धि करने पर वह सिद्धि तात्त्विक नहीं होती है (काल्पनिक होती है)। जैसे काल्पनिक धूम से वास्तविक अग्नि की सिद्धि नहीं होती है। अतः उत्पाद, व्यय, बद्ध, मोचक, बन्ध और मुक्ति से रहित केवल प्रतिभास मात्र की श्रद्धा से मोक्षमार्ग की देशना को दूर ही फेंक दिया है, ऐसा माना जाता है अर्थात् जब अद्वैतवाद में बन्ध, बन्धक आदि द्वैत ही नहीं है - तब मोक्षमार्ग की देशना कैसे सिद्ध हो सकती है ? इसलिए तत्त्वार्थशास्त्र के प्रारम्भ में स्याद्वाद के नायक (स्याद्वाद सिद्धान्त के पथप्रदर्शक) श्री अर्हन्त देव ही स्तुति करने योग्य हैं। क्योंकि अरिहन्त देव ही रागद्वेष आदि भावदोष और ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मरूप द्रव्यदोषों से रहित हैं। वे अर्हन्त भगवान् सर्व दोषों से रहित (वीतरागी) हैं क्योंकि सर्वज्ञ हैं और जो सर्वज्ञ (सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला) होता है, वही प्रमाणों से युक्त मोक्षमार्ग का प्रणेता होता है। अर्थात् मोक्षमार्ग का प्रणेता होने से अर्हन्त सर्वज्ञ हैं। इस कथन से मोक्षमार्ग का नेता, कर्म रूपी पर्वतों का भेत्ता और विश्वतत्त्वों का ज्ञाता इन विशेषणों से युक्त अर्हन्त देव की सिद्धि की है। जो कपिलादि असर्वज्ञ हैं, वे प्रमाणप्रतिपादन पूर्वक मोक्षमार्ग के प्रणायक (उपदेष्टा) नहीं हो सकते हैं। वे कपिलादि जब मोक्षमार्ग के प्रणेता नहीं हैं, अतः असर्वज्ञ (सर्वज्ञ नहीं) हैं, जो सर्वज्ञ नहीं है- वह रागद्वेषादि दोषों से रहित भी नहीं है। तथा रागीद्वेषी होने से वह परीक्षक (विचारशील) जनों के द्वारा स्तुति करने योग्य भी नहीं है। सर्वथा हितरहित मार्ग के उपदेशक होने से सर्वथा एकान्तवादियों के मोक्षमार्ग की व्यवस्था नहीं हो सकती। इस प्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं। इसलिए प्रमाणों से युक्त मोक्षमार्ग के प्रणायक (नेता, विधाता) सर्वज्ञ, वीतराग, स्याद्वाद सिद्धान्त के धारी वे अर्हन्त देव ही विचारशील (ज्ञानी) पुरुषों के द्वारा स्तुति करने योग्य हैं। जो हितमार्ग से च्युत हैं- हित का उपदेश देने वाले नहीं हैं, असर्वज्ञ हैं और रागी द्वेषी हैं, वे कपिलादि स्तुति करने योग्य नहीं हैं // 101 // इस प्रकार शास्त्र के प्रारम्भ में आचार्यदेव ने स्तुति करने योग्य विशिष्ट अर्हन्त की सिद्धि की है। इस प्रकार विद्यानन्दी आचार्य के कथन से 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलाचरण श्लोक गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा विरचित है।