________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-८० . सर्वज्ञविज्ञानस्य स्वं प्रतिबंधकं कल्मषं तस्मिन्नसत्येव तद्भवति स्पष्टस्वविषयावभासित्वात् निर्दोषचक्षुरादिवदित्यत्र नासिद्धं साधनं प्रमाणसद्भावात्। नन्वामूलं कल्मषस्य क्षये किं प्रमाणमिति चेदिमे ब्रूमहे; क्षीयते क्वचिदामूलं ज्ञानस्य प्रतिबंधकम्। समग्रक्षयहेतुत्वाल्लोचने तिमिरादिवत् / / 40 // समग्रक्षयहेतुकं हि चक्षुषि तिमिरादि न पुनरुद्भवदृष्टं तद्वत्सर्वविदो ज्ञानप्रतिबंधकमिति / ननु क्षयमात्रसिद्धावप्यामूलक्षयोऽस्य न सिद्ध्येत् पुनर्नयने तिमिरमुद्भवद् दृष्टमेवेति चेन्न, तदा तस्य समग्रक्षयहेतुत्वाभावात् / समग्रक्षयहेतुकमेव हि तिमिरादिकमिहोदाहरणं नान्यत् / न चानेन हेतोरनैकांतिकता तत्र तदभावात्। सर्वज्ञविज्ञान का प्रतिबन्धक स्वकीय (आत्मा के द्वारा उपार्जित) पाप कर्म (घातिया कर्म) है। उन घातिया कर्म रूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने पर सब को जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। वह स्पष्ट रूप से अपने विषयों का प्रकाशक है। जो स्पष्ट रूप से अपने विषयों के प्रकाशक होते हैं. वे अपने प्रतिबन्धकों के नष्ट होने पर ही उत्पन्न होते हैं। जैसे निर्दोष चक्षु अपने विषयभूत पदार्थों को स्पष्ट जानता है। इस अनुमान में दिया गया स्पष्ट भासित्व हेतु असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि इस की सिद्धि में भी प्रमाणों का सद्भाव पाया जाता है। कर्मों के जड़ से ही पूरी तरह क्षय होने में क्या प्रमाण है? ऐसी शंका होने पर जैनाचार्य कहते हैं कर्मक्षय के कारणभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप सम्पूर्ण सामग्री के मिलने से किसी मानव के ज्ञान के प्रतिबन्धक कारण जड़ से नष्ट हो जाते हैं। जैसे अंजनादि के लगाने से नेत्रों के (तिमिर) रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं॥४०॥ जैसे कामला आदि रोगों के सर्वथा नाशक अंजन आदि के प्रयोग से नेत्र के कामला आदि रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वे पुन: उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार एकत्व वितर्क अवीचार ध्यान के द्वारा ज्ञान के प्रतिबन्धक चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। प्रतिबन्धक कारणों का सर्वथा नाश हो जाने पर पुन: उनका प्रादुर्भाव नहीं होता है। शंका - कर्मों का क्षयमात्र सिद्ध होने पर भी उनका निर्मूल नाश नहीं होता है तथा नेत्र के रोग का नाश होने पर भी तिमिरादि रोग पुनः उत्पन्न होते देखे जाते हैं अतः इस दृष्टान्त से ज्ञान के प्रतिबन्धक कारणों का सर्वथा अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। उत्तर - ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि संसारी जीव के सम्पूर्ण घातिया कर्मों का क्षय करने वाले कारणों का अभाव है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के कारण ही तिमिरादिक का यहाँ उदाहरण है, दूसरा उदाहरण नहीं है। और यह हेतु अनैकान्तिक दोष से दूषित भी नहीं है। क्योंकि इस अनुमान में अनैकान्तिकता का अभाव है।