________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 81 किं पुन: केवलस्य प्रतिबंधकं यस्यात्यंतपरिक्षयः क्वचित्साध्यत इति नाक्षेप्तव्यम् / मोहो ज्ञानदृगावृत्यंतरायाः प्रतिबंधकाः। . केवलस्य हि वक्ष्यते तद्भावे तदनुद्भवात् / / 41 // यद्भावे नियमेन यस्यानुद्भवस्तत्तस्य प्रतिबंधकं यथा तिमिरं नेत्रविज्ञानस्य मोहादिभावोऽस्मदादेशक्षुर्ज्ञानानुद्भवश केवलस्येति मोहादयस्तत्प्रतिबंधकाः प्रवक्ष्यते। ततो न धर्मिणोऽसिद्धिः। कः पुनरेतत्क्षयहेतुः समग्रो यद्भावाद्धेतुसिद्धिरिति चेत्; तेषां प्रक्षयहेतू च पूर्णी संवरनिर्जरे। ते तपोतिशयात्साधोः कस्यचिद्भवतो ध्रुवम् // 42 // तपो ह्यनागताघौघप्रवर्तननिरोधनम् / तजन्महेतुसंघातप्रतिपक्षयतो यथा // 43 // भविष्यत्कालकूटादिविकारौघनिरोधनम् / मंत्रध्यानविधानादि स्फुटं लोके प्रतीयते // 44 // केवलज्ञान के प्रतिबन्धक / “केवलज्ञान के प्रतिबन्धक क्या हैं? जिनका अत्यन्त क्षय कहीं (किसी एक आत्मा में) सिद्ध किया * जा रहा है" ऐसा आक्षेप नहीं करना चाहिए। क्योंकि ___ मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म केवलज्ञान के प्रतिबन्धक हैं। उनका वर्णन आगे करेंगे। उन कर्मों के सद्भाव में केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है॥४१॥ जिसके सद्भाव में जिसकी उत्पत्ति नहीं होती है, वह उसका प्रतिबन्धक होता है। जैसे तिमिर रोग के / सद्भाव में नेत्र सम्बन्धी निर्दोष ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है- अत: वह तिमिर रोग नेत्र के निर्दोष ज्ञान का प्रतिबन्धक है। मोहनीय आदि चार घातिया कर्मों का सद्भाव हमारे केवलज्ञान का प्रतिबन्धक है। जैसे हमारे कामलादि रोग उत्पन्न होने पर चक्षुज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः केवलज्ञान के मोहादि चार घातिया कर्म प्रतिबन्धक / हैं। इसका वर्णन आगे दसवें अध्याय में करेंगे। इसलिए. केवलज्ञान के प्रतिबन्धक मोहादि धर्मी (पक्ष) की असिद्धि नहीं है। कर्मक्षय में कारण मोहनीय आदि कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करने का कारण कौन है जिसके सद्भाव से स्याद्वाद में कथित हेतु सिद्ध होता है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं उन मोहनीयादि कर्मों के क्षय का परिपूर्ण कारण संवर और निर्जरा हैं। और वे संवर और निर्जरा तपश्चरण के अतिशय (माहात्म्य) से किसी साधु के निश्चय से होते हैं।॥४२॥ अनागत (भावी) पापों के समूह की प्रवृत्ति का निरोध करने वाला तप कहलाता है। अर्थात् तपश्चरण ही अनागत कर्मों के आने को रोकने वाले हैं। वह तप कर्मों की उत्पत्ति के कारण (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र) के संघात के क्षय से उत्पन्न होता है। अर्थात् तप संवर और निर्जरा दोनों का कारण है। जैसे भविष्य में होने वाले कालकूट (विष) आदि के विकारों के समूह का निरोध मंत्र और ध्यान के विधान आदि से होता है, स्पष्ट रूप से यह लोकप्रसिद्ध है। उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा कर्मों का संवर और निर्जरा होती है।४३-४४॥ '