________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 83 'ततो नि:शेषतत्त्वार्थवेदी प्रक्षीणकल्मषः। श्रेयोमार्गस्य नेतास्ति स संस्तुत्यस्तदर्थिभिः // 49 // ननु निःशेषतत्त्वार्थवेदित्वे प्रक्षीणकल्मषत्वे च चारित्राख्ये सम्यग्दर्शनाविनाभाविनि सिद्धेऽपि भगवतः शरीरित्वेनावस्थानासंभवान श्रेयोमार्गोपदेशित्वं, तथापि तदवस्थाने शरीरित्वाभावस्य रत्नत्रयनिबंधनत्वविरोधात् तद्भावेऽप्यभावात् / कारणांतरापेक्षायां न रत्नत्रयमेव संसारक्षयनिमित्तमिति कशित् / सोऽपि न विपश्चित् / यस्मात् तस्य दर्शनशुद्ध्यादिभावनोपात्तमूर्तिना। पुण्यतीर्थकरत्वेन नाम्ना संपादितश्रियः // 50 // स्थितस्य च चिरं स्वायुर्विशेषवशवर्तिनः। श्रेयोमार्गोपदेशित्वं कथंचिन विरुध्यते // 51 // वीतराग, सर्वज्ञ हितोपदेशी ही वन्दनीय है जिस कारण से कर्मों का क्षय करने वाला हेतु सिद्ध है उसी कारण से यह भी सिद्ध है किजिसके सम्पूर्ण पाप (चार घातिया कर्म) नष्ट हो गये हैं, ऐसा वीतरागी और सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) भगवान मोक्षमार्ग का नेता (मोक्षमार्ग का उपदेशक) है, वही मोक्ष के अभिलाषी भव्य जीवों के द्वारा स्तुति करने योग्य है (वन्दनीय, पूजनीय है)॥४९॥ - शंका - सम्यग्दर्शन के अविनाभावी सम्पूर्ण पदार्थों का जानलेनापन (सर्वज्ञत्व) चारित्र मोहनीय आदि चार घातिया कर्म रूपी कल्मष (पाप) के क्षीण हो जाने पर चारित्र गुण के सिद्ध हो जाने पर भी (रत्नत्रय वाले) भगवान के शरीर रूप से अवस्थान (रहने) की असंभवता होने से श्रेयोमार्ग (मोक्षमार्ग) का उपदेश देना घटित नहीं हो सकता। अर्थात् जिसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों गुण परिपूर्ण हो गये हैं, वह शीघ्र ही द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मों का नाश कर मुक्त हो जाता है, शरीर सहित संसार में नहीं रह सकता- अत: उसके मोक्षमार्ग का उपदेश देना घटित नहीं हो सकता। यदि रत्नत्रय की पूर्णता हो जाने पर भी शरीर में रहना स्वीकार करते हैं तो शरीर के नाश का कारण निना विरोध यक्त होगा। क्योंकि तेरहवें गणस्थान में रत्नत्रय की पर्णता हो जाने पर मोक्षमार्ग के उपदेशक भगवान के शरीर का अभाव नहीं है। यदि उस शरीर का नाश करने के लिए दूसरे कारणों को मानते हैं तो पूर्ण रत्नत्रय भी संसार के क्षय का निमित्त नहीं हो सकता। ऐसा कोई कहता है? उत्तरजैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला विद्वान् नहीं हैं। क्योंकि . दर्शनविशुद्धि आदि षोड़शकारण भावनाओं के चिंतन से उपार्जित है शरीर जिसका तथा अत्यन्त पुण्यशालिनी तीर्थंकरत्व नामकर्म प्रकृति के द्वारा सम्पादित (प्राप्त) समवसरण आदि लक्ष्मी वाले अपनी आयु विशेष के वशवर्ती (आयु के कारण) संसार में स्थित भगवान के चिरकाल तक (अधिक से अधिक आठ वर्ष कम एक कोटिपूर्व काल तक) मोक्षमार्ग का उपदेश देना किसी भी प्रकार से विरुद्ध नहीं है।५०-५१॥