________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 100 सत्त्वस्यान्यदन्यदर्थातरविशेषणत्वमित्यायातमनेकरूपत्वं / नानार्थविशेषणत्वं नाना न पुनः सत्त्वं तस्य ततो भेदादिति चेत् / तर्हि घटविशेषणत्वाधारत्वेन सत्त्वस्य प्रतीतो सर्वार्थविशेषणत्वाधारत्वेनापि प्रतिपत्तेः स एव संशयापाय: सर्वार्थविशेषणत्वाधारत्वस्य ततोऽनन्तरत्वात् / तस्यापि नानारूपस्य सत्त्वाद्भेदे नानार्थविशेषणत्वान्नानारूपादनन्तरत्वसिद्धेः। सिद्धं नानास्वभावं सत्त्वं सकृन्नानार्थविशेषणं / तद्वत्समवायोऽस्तु / द्रव्यत्वादिसामान्य द्वित्वादिसंख्यानं पृथक्त्वाद्यवयविद्रव्यमाकाशादि विभुद्रव्यं च स्वयमेकमपि पुरा सत्ता में रहने वाले नाना अर्थों के विशेषणपन ही अनेक हैं किन्तु फिर सत्ता अनेक नहीं है, क्योंकि वह सत्ता अपने उन विशेषणों से सर्वथा भिन्न है। (धर्म धर्मी से भिन्न होता है) तब तो घट विशेषणत्व के आधार से (धर्म के आश्रयपने से) सत्ता को जान लेने पर सम्पूर्ण अर्थों के विशेषणत्व के आधार रूप से भी सत्ता की प्रतीति हो जाती है। (अर्थात् सत्ता तो एक ही है और निरंश है अतः एक सत्ता के जान लेने पर सम्पूर्ण पदार्थों का जानना सिद्ध हो गया तो वह का वही, कहीं भी संशय का न रहना रूप दोष तदवस्थ रहा) क्योंकि सत्ता के उस घट विशेषणत्व का आधारत्व धर्म से उन सर्वार्थों में विशेषणत्व का आधारपना धर्म भिन्न नहीं है, एक ही है। ' यदि (वैशेषिक) सत्ता के उन अनेक धर्मों को भी सत्ता से भिन्न हो रहे स्वीकार करते हैं (सत्ता के धर्मों को सत्ता से भिन्न मानते हैं) तो नाना अर्थों के विशेषणत्व रूप होने से जो सत्ता नाना रूप है उन नाना रूपों के सत्ता से अभेदत्व की सिद्धि हो जाती है। अतः एक साथ नाना पदार्थों का विशेषण होने से सत्ता में नाना स्वभाव सिद्ध है। उसी प्रकार समवाय भी नाना प्रकार का सिद्ध होता है। जैसे द्रव्यत्व सामान्य एक जाति है किन्तु पहले से ही पृथ्वी, अप् तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन इन नौ द्रव्यों में रहती है। तथा एक गुणत्व जाति रूप, रस आदिक चौबीस गुणों में रहती है। कर्मत्व जाति भी उत्क्षेपण-अवक्षेपण आदि पाँच कर्मों में रहती है। यह एक सामान्य सत्ता है। तथा दो द्रव्यों में रहने वाली द्वित्व संख्या तथा तीन में रहने वाली त्रित्व संख्या, चार द्रव्यों में रहने वाली चतुष्टय संख्या आदि भी एक-एक होकर पर्याप्ति नामक सम्बन्ध से अनेक में रहती है। पृथक्त्व, संयोग और विभाग गुण भी एक हो कर अनेक में रहते हैं। इसी प्रकार एक घट अवयवी द्रव्य दो कपालों में रहता है तथा एक पट अवयवी द्रव्य अनेक तन्तुओं में रहता है। तथा आकाश, काल, आत्मा, दिशा ये चार व्यापक द्रव्य स्वयं अकेले-अकेले होकर भी वृत्तिता के अनियामक