________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 111 देशतोऽकृतकृत्येषु तस्य हितैषित्वं तत्खड्गिनोऽपि स्वचित्तेषूत्तरेष्वस्तीति न जगद्धितैषित्वाभाव: सिद्धः। नापि चरमत्वं प्रमाणाभावात् / चरमं निराम्रवं खड्गिचित्तं स्वोपादेयानारंभकत्वाद्वर्तिस्नेहादिशून्यदीपादिक्षणवदिति चेत् / न। अन्योन्याश्रयणात्। सति हि तस्य स्वोपादेयानारंभकत्वे चरमत्वस्य सिद्धिस्तत्सिद्धौ च स्वोपादेयानारंभकत्वसिद्धिरिति नाप्रमाणसिद्धविशेषणो हेतुर्विपक्षवृत्तिश्च। खड्गिसंतानस्यानंतत्वप्रतिषेधायालं येनोत्तरोत्तरैष्यचित्तापेक्षयात्मानं शमयिष्यामीत्यभ्यासविधानात्स्वचित्तैकस्य शमनेऽपि तत्संतानस्यापरिसमाप्तिसिद्धेर्निरन्वयनिर्वाणाभावः। सुगतस्येवानंतजगदुपकारस्य न व्यवतिष्ठेत तथापि कस्यचित्प्रशांतनिर्वाणे सुगतस्य तदस्तु। ततः सुष्टुगत एव सुगतः। स च कथं मार्गस्य प्रणेता नाम। यदि सुगत की हित करने की अभिलाषा एकदेश 'जो अकृतकृत्य हैं' उनमें होती है, तो कुछ चित्तों में वह हितैषिता खड्गी के भी विद्यमान है (अर्थात् खड्गी भी अपने उत्तरकाल में होने वाली विज्ञान रूप चित्तों में प्रशमन करने की अभिलाषा रखता है। अत: बौद्ध मतानुसार खड्गी में जगत् हित की अभिलाषा रखने रूप हेतु का अभाव सिद्ध नहीं है। अर्थात् जगत् की हिताभिलाषा रूप हेतु भी सिद्ध है। तथा प्रमाण का अभाव होने से चरमत्व विशेषण भी सिद्ध नहीं है। अर्थात् खड्गी के चित्त का कहीं अन्त हो जाता है। यह किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि खड्गी का अन्तिम चित्त स्वयं उपादान कारण बन कर किसी दूसरे उपादेय को उत्पन्न करने वाला न होने से निराम्रव है, जैसे अन्तिम दीपकलिका बत्ती, तैल आदि कारणों से शून्य (रहित) होने से दूसरी दीपकलिका रूप स्वलक्षण को उत्पन्न नहीं करती है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है। इसमें परस्पराश्रय दोष है क्योंकि अभी तक खड्गी के चित्त का अन्तिमपना और अपने उपादेय को उत्पन्न नहीं करना, ये दोनों ही बातें सिद्ध नहीं हैं। चित्त का अन्तिमपना सिद्ध होने पर अपने उपादेय कार्य का उत्पन्न नहीं होना सिद्ध होता है, और जब चित्त अपने उपादेय कार्य को उत्पन्न नहीं करता है, यह सिद्ध होता है तब चित्त का चरमत्व सिद्ध होता है, इस प्रकार परस्पराश्रय दोष आता है। अत: पूर्व अनुमान में दिये गये हेतु के हितैषिता का अभाव और अन्तिमपना ये दोनों विशेषण प्रमाणों से सिद्ध नहीं हैं। इसलिए यह हेतु बुद्ध के चित्त रूप विपक्षों में रहने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इस कारण सहकारी रहितत्व हेतु खड्गी के चित्तसंतान की अनन्तता का निषेध करने के लिए समर्थ नहीं है, जिससे कि चित्तसन्ततियों के सर्वथा नाश रूप मोक्ष की सिद्धि हो सकती हो अर्थात् नहीं हो सकती। खड्गी के उत्तरोत्तर भविष्य में आने वाले चित्तों की अपेक्षा से 'अपने चित्त का शमन करूंगा' इस प्रकार भावना के अभ्यास के विधान से एक स्वचित्त का शमन कर देने पर भी उस खड्गी की सन्तान की पूर्णतया समाप्ति सिद्ध नहीं है। इसलिए अन्वयरहित तुच्छाभावरूप मुक्ति सिद्ध नहीं होती है अर्थात्- निरन्वय निर्वाण का अभाव है। तथा च, अनन्त जगत् के उपकार करने वाले सुगत के समान खड्गी की भी संसार में स्थिति नहीं हो यह बात नहीं है। इस प्रकार दोनों (सुगत और खड्गी) के पूर्ण रूप से समानता होने पर भी अकेले खड्गी की ही तुच्छ अभावरूप शान्त मुक्ति मानोगे तो बुद्ध की भी बुझे हुए दीपक के समान चित्तधारा के सर्वथा नाशरूप मोक्ष हो जाओ, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अतः सुष्टुः गतः(फिर लौटकर नहीं आने रूप अर्थ वाला) सुगत मोक्षमार्ग का प्रणेता कैसे हो सकता है? किसी प्रकार भी नहीं हो सकता।