________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१०२ भावात्साधनशून्यं साध्यशून्यं च निदर्शनमिति चेन, अत्यंतभेदस्य ततस्तेषामनिश्चयात्तदसिद्धेः। गुणगुणिनौ, क्रियातद्वंतौ, जातितद्वंतौ च परस्परमत्यंतं भिन्न भिन्नप्रतिभासत्वात् घटपटवदित्यनुमानमपि न तद्भेदैकांतसाधनं, कथंचिद्भिन्नप्रतिभासत्वस्य हेतो: कथंचित्तद्भेदसाधनतया विरुद्धत्वात् सिद्ध्यभावात् / न हि गुणगुण्यादीनां सर्वथा भेदप्रतिभासोऽस्ति कथंचित्तादात्म्यप्रतिभासनात् / तथाहि- गुणादयस्तद्वतः कथंचिदभिन्नास्ततोऽशक्यविवेचनत्वान्यथानुपपत्तेः। किमिदमशक्यविवेचनत्वं नाम? विवेकेन ग्रहीतुमशक्यत्वमिति चेदसिद्धं गुणादीनां द्रव्याद्भेदेन ग्रहणात् / तदुद्धौ द्रव्यस्याप्रतिभासनात् द्रव्यबुद्धौ च गुणादीनामप्रतीतेः / देशंभेदेन विवेचयितुमशक्यत्वं तदिति चेत्, कालाकाशादिभिरनैकांतिकं साधनमिति कशित्। (वैशेषिक कहते हैं कि) गुणादि दृष्टान्त में द्रव्य से कंथचित् तदात्मक रूप से प्रकाशन होनेरूप हेतु का और द्रव्य का परिणाम होनेरूप साध्य का अस्तित्व नहीं है। अतः यह दृष्टान्त साध्य और साधन से रहित है, ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि द्रव्य से उन गुणादिकों के अत्यन्त भेद का अभी तक निश्चय नहीं हुआ है। अतः गुण और गुणी में सर्वथा भेद की सिद्धि नहीं है। .. ____ गुण और गुणवान, क्रिया और क्रियावान, जाति और जातिवान परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं, क्योंकि घट, पट, आदि के समान इनमें भी भेद प्रतिभासित होता है। यह उक्त अनुमान भी गुण-गुणी में, क्रिया-क्रियावान में, जाति-जातिवान में एकान्तभेद का साधक नहीं है। कथंचित् भिन्न प्रतिभासत्व हेतु का कथंचित् भेद साधक होने से सर्वथा भेद साधन के साथ विरोध है- अत: इस अनुमान से सर्वथा भेदसिद्धि का अभाव है। अर्थात् कथंचित् भेद प्रतिभासन रूप हेतु से गुण-गुणी आदि में कथंचित् भेद सिद्ध होता है। सर्वथा भेद की सिद्धि नहीं होती है। निश्चय से गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान आदि में सर्वथा भेद प्रतिभास नहीं होता है- अपितु कथंचित् तादात्म्य प्रतिभास हो रहा है। तथाहि- अनुमान से सिद्ध करते हैं कि गुण, क्रिया आदि गुणी, क्रियावान आदि से कथंचित् अभिन्न हैं। अन्यथा (कथंचित् अभिन्न नहीं मानते हैं तो) उनका विवेचन करना शक्य हो जाता। किन्तु गुण, गुणी आदि को पृथक् करना अशक्य है। - शंका - यह अशक्य विवेचन क्या है? गुण-गुणी का भिन्न-भिन्न ग्रहण नहीं होता है, अतः अशक्य विवेचन है, ऐसा कहना असिद्ध है। क्योंकि गुणादिकों का द्रव्य के भेद से ग्रहण होता है। गुणादि बुद्धि में द्रव्य का प्रतिभास नहीं होता है और द्रव्य बुद्धि में गुणादिकों की प्रतीति नहीं होती है। गुण-गुणी का देशभेद करना शक्य नहीं होने से यह अशक्य विवेचन है तो यह तुम्हारा हेतु काल, आकाश, दिशा आदि से व्यभिचारी होता है। क्योंकि काल, आकाश आदि का भिन्न-भिन्न देश नहीं होते हुए भी परस्पर भेद है। अतः जो देश की अपेक्षा अभिन्न है- वह एक है, ऐसा कहना व्यभिचारी होता है। इस प्रकार कोई (वैशेषिक) कहता है।