________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 107 विद्याप्रतिबंधकाभावाद्विद्योदयस्येष्टेः। विद्यास्वभावो ह्यात्मा तदावरणोदये स्यादविद्याविवर्तः स्वप्रतिबंधकाभावे तु स्वरूपे व्यवतिष्ठत इति नाविद्यैवानादिर्विद्योदयनिमित्ता सकलविद्यामुपेयामपेक्ष्य देशविद्या तदुपायरूपा भवत्यविद्यैवेति चेत् / न / देशविद्याया देशतः प्रतिबंधकामावादविद्यात्वविरोधात् / या तु केनचिदंशेन प्रतिबंधकस्य सद्भावादविद्यात्मनः, सापि न विद्योदयकारणं, तदभाव एव विद्याप्रसूतेरिति न विद्यात्मिका भावना गुरुणोपदिष्टा साध्यमाना विरोध नहीं है। क्योंकि सर्व वादी अविद्यापूर्वक ही विद्या की उत्पत्ति मानते हैं। अन्यथा (यदि अविद्यापूर्वक विद्या की उत्पत्ति नहीं मानेंगे तो) विद्या के अनादिकालीनत्व का प्रसंग होने से संसार की प्रवृत्ति का अयोग होगा। अर्थात् अविद्यापूर्वक विद्या नहीं होगी तो संसार में प्रवृत्ति नहीं होगी। सर्व जीव अनादि से सर्वज्ञ ही रहेंगे। उत्तर - जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का यह कथन प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि स्याद्वाददर्शन में अविद्या से विद्या की उत्पत्ति नहीं मानते हैं अपितु विद्या (ज्ञान) के प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म के क्षय वा क्षयोपशम रूप अभाव से विद्या की उत्पत्ति मानते हैं। आत्मा ज्ञानस्वभाव है, उस ज्ञानस्वभाव पर ज्ञानावरण कर्म का उदय होने से अज्ञान रूप पर्याय उत्पन्न होती है। तथा अपने प्रतिबन्धक के अभाव में आत्मा अपने स्वरूप में (केवलज्ञान में) व्यवस्थित (लीन) होकर परिणमन करता है। इसलिए अनादिकालीन अविद्या ही विद्या की उत्पत्ति का निमित्त कारण नहीं है, अपितु कर्मों के नाश से और अविद्या के अभाव से आत्मा में स्वाभाविक विद्या उत्पन्न हो जाती है। उपादेयभूतसकल विद्या (परिपूर्ण ज्ञान) की अपेक्षा करके एकदेश अल्पज्ञान परिपूर्ण ज्ञान का कारण कहा जाता है और वह एकदेश ज्ञान अविद्या से उत्पन्न होता है अतः अविद्या विद्या का कारण है, ऐसा कहना उचित नहीं है- क्योंकि एकदेश विद्या (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान) की उत्पत्ति एकदेश प्रतिबन्धक (देशघाती मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्यय ज्ञानावरण) के अभाव से उत्पन्न होती है। अत: अविद्या से विद्या की उत्पत्ति का विरोध है। अथवा अविद्या मिथ्याज्ञान को कहते है। मतिज्ञानादि सम्यग्ज्ञानों को अविद्या नहीं कहते हैं- अतः विद्या से ही विद्या उत्पन्न होती है, अविद्या से नहीं। ___. किंच, किसी अंश से प्रतिबन्धक (मतिज्ञानावरणादि देशघातिकर्मप्रकृति के उदय) का सद्भाव होने से आत्मा के जो अविद्या का सद्भाव है, वह अविद्या (अल्पज्ञान) विद्या (केवलज्ञान) की उत्पत्ति का कारण नहीं है। क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति में तो ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्म के उदय का अभाव ही कारण है। अत: स्वयं अज्ञान स्वरूप किन्तु भविष्य में ज्ञान की कारणभूत और गुरु के द्वारा उपदिष्ट अन्तपर्यन्त साध्यमान विद्यात्मिका श्रुतमयी एवं चिन्तामयी भावना सुगत के पूर्ण ज्ञान के उत्पन्न होने में कारण नहीं है, जिससे सुगत का (सर्वज्ञपन सिद्ध हो कर) भव्यों को सम्बोधन करने के लिए कुछ दिन संसार में ठहरना व्यवस्थित बन सके।